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________________ 263 (12) श्री चंद्रप्रभ जिन स्तवन हे सखी मुने देखण दे, हो सखी मुने देखण दे, | उपशम रसनो कंद, हो सखी० सेवे सुरनर वृंद, हो सखी० गत कलिमल दुःख वृंद हो सखी०॥१॥ सूक्ष्म निगोद न देखियो, स० बादर अतिहि विशेष; पूढवी आउन लेखियो, स० तेउ वाउन लेश, हो० स०॥२॥ वनस्पति अति घण दिहा, स० दीठो नहि देदार, बिति चउरिन्द्रिय जल लीहा, स० गत सन्नि पण धार, हो० स०॥३॥ सुरतिरि निरय निवासमां, स० मनुज अनारज साथ, अपज्जता प्रति भासमां, स० चतुर न चढीयो हाथ, हो स०॥४॥ एम अनेक थल जाणिये स० दरिशण विणु जिनदेव, आगमथी मति आणिये स० किजिये निर्मल सेव हो सखी०॥५॥ निर्मल साधु भक्ति लही, स० योग अवंचक होय, किरिया अवंचक तिम सही, स० फल अवंचक जोय हो सखी०।६।। प्रेरक अवसर जिनवरू स० मोहनिय क्षय जाय, कामित पूरण सुरतरू स० आनंदधन प्रभुपाय हो सखी०।।७।। (1) श्री सुविधिनाथ जिन स्तवन ॥१॥ में कीनो नही तुम बीन ओरशुं राग रे दिन दिन वान वधे गुण तेरो, जयुं कंचन परभाग; औरन में है कषायकी कलिमा, सो कयुं सेवा लाग रे,...मे किनो०॥२॥ राजहंस तुं मान सरोवर, और अशुचि रुचि काग; विषय भुजंग गरुड कहीये, और विषय विषनाग,..रे में कीनो० ॥३॥ और देव जल छिल्लर सरीखे, तुं तो समुद्र अथाग; रे तुं सुरतरुं जन वांछित पूरण और तो सुको साग..रे में कीनो० ॥४॥ तुं पुरुषोत्तम तुहि निरंजन, तुं शंकर वडभाग; रे तुं ब्रह्मा तुं बुद्ध महाबल, तुहिज देव वितराग..रे, में कीनो० ॥५॥ सुविधिनाथ तुम गुण फुलनको, मेरो दिल है बाग; रे जश कहे भ्रमर रसिक होई ताको, दिजे भक्ति पराग..रे में कीनो० ॥६॥ (2) श्री सुविधिनाथ जिन स्तवन सुविधि सुविधिना रागी, अक अरज करुं पाय लागी; दीदार दीठे वडभागी भली भाग्य-दशा मुज जागी रे. ॥१॥ सुण शिवरमणीना कंत, मनमोहन तुं गुणवंत; सुख वंछित दीजे संत, प्रभु पाम्या जेह अनंत हो०
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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