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रे,। २ श्री पद्मप्रभुनी मूर्ति स्थापी, सकल तीरथ शणगार रे, कलीयुगे कल्पतरू ए प्रगट्यो, वांछित फल दातार रे,। ३ उपाश्रय बे हजार कराव्या, दानशाला सवा सात रे, धर्मतणा आधार आरोपी, त्रीजग हुओ विख्यात रे,। ४ सवा लाख प्रासाद करावी, छत्रीश सहस उद्धार रे, सवा कोडी संख्याए प्रतिमा, धातुं पंचाणुं हजार रे,। ५ एक प्रासाद नवो नित निपजे, तो मुख शुद्धि होय रे, एवो अभिग्रह संप्रतिए कीधो, उत्तम करणी थाय रे,। ६ आर्य सुहस्ति गुरु उपदेशे, श्रावकने आचार रे, समकित मूल बार व्रत पाली, कीधो जग उपकार रे,। ७ जिनशासन उद्योत करीने, पामी त्रण खंडे राज रे, ए संसार अस्थिर जाणीने, साध्या आतम काज रे,। ८ गंगाणी नयरीमा प्रगट्या, श्री पद्मप्रभु देव रे, विबुध कांति शिष्य कनकने, देजो तुज पय सेव रे,। ६ (9) पद्मप्रभ जिन स्तवन (एक दिन पुंडरिक गणधरू रे लाल)
श्री पद्मप्रभ जिनराजने रे लो, विनती करूं करजोड रे। जिणंदराय माहरे तुं प्रभुं एक छे रे लो, मुज सम ताहरे कोड रे । जिणंदराय,। श्री० १ लोकालोकमां जाणीए रे लो, इम न सरे मुज काज रे। जिणंदराय । दास सभावे जो गणे रे लो, तो आवे मन ठाम रे। जिणंदराय। श्री० २ कहेवाये पण तेहने रे लो, जेह राखे मुह लाज रे। जिणंदराय । प्रारथीयां पहिडिये नहि रे लो, साहिब गरीब निवाज रे । जिणंदराय । श्री० ३ कर पद मुख कज शोभथी रे लो, जीती पंकज जात रे। जिणंदराय, । लंछन मिसि सेवा करे रे लो, धर नृप सुसीमा मात रे | जिणंदराय श्री० ४ उगत अरूण तनु वान छे रे लो, छठो देव दयाल रे । जिणंदराय । न्यायसागर मन कामना रे लो, पूरण सुख रसाल रे। जिणंदराय श्री० ५
(10) पद्मप्रभ जिन स्तवन हो अविनाशी, शिववासी सुविलासी सुसीमा नंदना,। छो गुणराशी, तत्त्व प्रकाशी खासी मानो वंदना। तुमे धरनरपतिने कुले आया, तुमे सुसीमा राणीना जाया, छप्पन दिशिकुमरी हुलराया। हो० १ सोहम सुरपति प्रभु घर आवे, करी पंच रूप सुरगिरि लावे, तिहां चोसठ हरि भेळा थावे। हो० २