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कर चडियो; शियालना भयथी निसरीयो, सिंह तणे वश पडीयो०...आदि०.॥६॥ अमीय रसायण आगम लहीने, विद्या भणी सुविशाल; नवा नवा मत मे बहु मांड्या, रचियां मायाजाल०...आदि०. ।।१०।। पर बुझववा पहोळो हुओ, आप न जाणुं सार; तरीय न जाणुं तारुं थाऊं, किम पामीश निस्तार०... आदि०.॥११॥ पांच इंद्रिय पूरी पोषु, मांडी कपट जंजाल; भ्रम देखाडी लोक भमाडु, वांर्छ सुख रसाल०... आदि०.॥१२।। निरगुण आराधुं गुणी मानी, आणी ह्वदय बहुमान; निर्दोषी गुणीजन अवहेल्या, मोटुं मुज अज्ञान०...आदि०.॥१३॥ जे जिनवाणी अमिय समाणी, तेविष सरखी जाणी; जे विष सरखा मूरखना मत, ते उपर चित्त पामी०...आदि०.॥१४॥ सेतुं कुदेव कुगुरुं, कुधर्म, आपे आप विगोयो; दोष अवरना बहु देखाईं, जाणपणुं मुज जुओ०...आदि०.॥१५॥ परविधने संतोषी हुओ, परलाभे विषवाद; परहितकारी पणुं देखाईं, बोलुं पर अपवाद०...आदि०.॥१६॥ अंतराय कर्म उदय करीने, भोगसंयोग न मळीयो; अछता भणी व्रतधारी हुओ, मन अभिलाष न टळीयो.०... आदि०. ॥१७|| रागद्वेष क्षण अक न मेलु, स्वामी केम सुख पामुं; संथारामांही सूतो वांछु, भोगीपणुं राजानुं. आदि०.॥१८॥ क्रोध दावानल मांही दाधो, मान महागिरि चडियो; माया सापण सूतो खाधो, लोभ समुद्रमा पडियो०... आदि०.||१६|| काम समीरे भूरी भमाड्यो, मोह पिशाचे छळियो; मिथ्या धूतारे घणुं धूत्यो, तोये रहुं तस मळियो०...आदि०.॥२०॥ पूण्य न पोते संचय कीg, पापे भर्या रे भंडार; सुख वांछतो देह संभालु, छेवट थाशे जे छार०...आदि०.॥२१॥ जे सुखदायक त्रिभुवननायक, सकल जीव हितकारी; तेह तणी पण निन्दा करतो,- कहेवाउ शुद्ध आचारी०... आदि०.।।२२।। जे तप संयमे सुख लहीये, तेह मार्नु दुःख मूल; प्रमाद तणा सुखमांहे राचु, ते मुज मन अनुकूळ०...आदि०.॥२३॥ जे संसार तणा सुख दीठां, ते मुज लागे मीठां; जे तप संयमथी भय नासे, मुज मन तेह अनीठां०...आदि०.॥२४॥ अह भवाडा पार न आवे, कहेवा भवनी कोड; तुम दर्शन देखी हवे लीनो, तेणे टळी सवि खोड०...आदि०.॥२५।। कहे लावण्य समय कर जोडी, मांगु ओक पसाय; हवे भवांतर भेट तमारी, देजो श्री जिनराय!०...आदि०.॥२६॥