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जी. १ ऋषभादिक जिन चैत्य जुहारो, पूजा विविध प्रकार जी, उभय टंक आवश्यक पडिलेहण, देव वंदो त्रण वार जी; नित्य नित्य पद अकेकुं गणीओ, नवकारवाली वीस जी, इण परे नवपद ध्यान धरंता, लहीये सयल जगीस जी. २ अरिहंत सिद्ध आचारज वाचक, साधु सदा गुणवंता जी, दंसण नाण चरण तप जपता, प्रगटे गुण अनंताजी; ओ नवपद महिमा जयवंतो, विरजिनेसर आखे जी, ध्यातां ध्येय पदवीने पामे, अक्षयलीला चाखे जी. ३ सिद्धचक्रनो सेवक कही), श्री विमलेश्वरयक्ष जी, रोग शोग दुःख दोहग पीडा, शान्ति करे प्रत्यक्ष जी; भवियण प्राणी जे गुणखाणी, ते नवपद आराधे जी, रत्नविजय कहे उत्तम पदवी, भोगवी सुखीया थाये जी. ४
(172) श्री सिद्धचक्र स्तुतिः । सकल सुरासुर नर विद्याधर, भक्ति थकी जे थुणियेजी; वांछित पूरण सुरतरु हुंती, अधिकी महिमा सुणीये जी; रोग शोग सवि संकट चूरण, जस गुण पारन मुणियेजी, सिद्धचक्र गुण भवियण अहनिश, नित नित मुखथी गुणीयेजी. १ कंचन कोमल वरणी केई, घन शामल रुचि देहाजी. कइंक स्फटिक परवाला रुचिवर, पंच वरण गुण गेहाजी, सत्तरी सय भरतैरावत, पंच पंच महावीदेहा जी; सिद्धचक्रनो ध्यानज ध्यावो, कर्म थया थाशे छेहाजी २ अरिहंत सिद्ध आचारज वाचक, साधु तणा समुदायजी; दर्शनज्ञान चारित्र तप निर्मल, नवपद शिवपद दायजी, सिद्धचक्रनो महिमा दाख्यो, शिवसाधन निपायाजी; अह विना अवर दूजो नवि लहीये, जस गुण कहयांन जायजी; ३ विमलयक्ष सुर सानिध्य कारी, ग्रह ग्रण सवि दिशी पालाजी; चक्केसरी अमरीने दिसि कुंमरी, श्रुत देवी रखवालाजी; सिद्धचक्र मंत्र अधिकारी, टाले मोहना चालाजी, ज्ञान विमल प्रभु आप वहंता, करता मंगल मालाजी; ४
- (173) श्री सिद्धचक्र स्तुतिः जिनशासन वंछित, पूरण देव रसाल, भावे भवि भणीये, सिद्धचक्र गुणमाल; तिहुंकाले अहनी, पूजा करे उजमाल, ते अजर अमर पद, सुख पामे सुविशाल. १ अरिहंत सिद्ध वंदो, आचारज उवज्झाय, मुनि दरिसण नाण, चरण तप समुदाय; जे नवपद समुदित, सिद्धचक्र सुखदाय, ओ