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षट्
उपांग बार, वली मूलसूत्र चार, नंदी अनुयोगद्वार; दशपयन्ना उदार, छेद वृत्ति सार, प्रवचन विस्तार, भाष्य नियुक्ति सार ३ जय जय जय नंदा, जैन दृष्टि सूरिंदा, करे परमानंदा, टालता दुःखदंदा ज्ञानविमलसूरींदा, साम्यमाकंद कंदा, वर विमल गिरिंदा, ध्यानथी नित्य भदा ४
(28) श्री शत्रुंजय स्तुति
यासी लाख पूरव घरवासे, वसीया परिकर युक्ताजी, जन्म थकी पण देवतरू फल, क्षीरोदधिजल भोक्ताजी; मइ सुअ ओहिं नाणे संयुत, नयण वयण कज चंदाजी, चार सहसशुं दीक्षा शिक्षा, स्वामी श्री ऋषभ जिणंदाजी. १ मनः पर्यव तव नाण उपन्युं, संयत लिंग सहावाजी, अढी द्विपमां सन्नीपंचेन्द्रिय, जाणे मनोगत भावाजी, द्रव्य अनंता सुक्ष्म तिर्च्छा, अढारसे खित्त ठायाजी, पलिय असंखम भाग त्रिकालिक, द्रव्य असंख्य परजायाजी. २ ऋषभ जिणेसर केवल पामी, रयण सिंहासन ठायाजी, अनभिलप्य अभिलाप्य अनंता, भाग अनंत उच्चरायाजी; तास अनंतमे भागे धारी, भाग अनंते सूत्रजी, गणधर रचिया आगम पूजी, करीओ जनम पवित्रजी. ३ गोमुख जक्ष चक्केसरी देवी, समकित शुद्ध सोहावेजी, आदि देवनी सेवा करंती, शासन शोभ चढावेजी; श्रद्धा संयुत जे व्रतधारी, विघन तास निवारेजी, श्री शुभविरविजय प्रभु भगते, समरे नित्य सवारेजी. ४
(29) श्री शत्रुंजय स्तुति
विद्याधरोने इन्द्रदेवो, जेहने नित पूजता, दादा सीमंधर देशनामां, जेहना गुण गावता, जीवो अनंता जेहना, सान्निध्यथी मोक्षे जता, ते विमल गिरिवर वंदता, मुज पाप सहु दूरे थतां १ षटखंडना विजयी बनीने चक्रीपदने पामता, षोडश कषायो परिहरीने सोलमा जिन राजता, चौमास, रही गिरिराज पर जे भव्यने उपदेशता, ते शांति जिनने वंदता मुज पाप सहु दुरे थतां . २. जे आदि जिननी आण पामी सिद्धगीरी ए आवता, अणसण करी एक मासनुं मुनि पंचक्रोडशुं सिद्धता, जे नामथी पुंडरिकगिरि एम तिहुं जगत बिरदावता, पुंडरिक स्वामी वंदता मुज पाप सहु दुरे थतां. ३.