________________
३२]
मृत्यु और परलोक यात्रा हुए भी उसका दृष्टापन परमेश्वर के ही कारण है । जीवात्मा. अणु स्वरूप है वह परमात्मा की भाँति विभु स्वरूप नहीं है। ___ इस प्रकार जीवात्मा ईश्वर से भिन्न हो गया है किन्तु जब वह अपने समस्त आवरणों का परित्याग कर देता है तो उसकी यह भिन्नता मिट जाती है तथा वह ब्रह्म में उसी प्रकार लय हो जाता है जैसे सागर में बूंद । कुछ मतावलम्बी यह भी मानते हैं कि उस समय भी भेद बना रहता है। जीवात्मा परमेश्वर के साथ ही सरल भाव से रहने वाला है किन्तु वह परमेश्वर की भाँति जगत् की रचना नहीं कर सकता न यह उसका कार्य है । यह कार्य परमेश्वर का ही है । जीवात्मा में जो विकृतियाँ आई हैं वह देहाभिमान के कारण आई हैं। देहाभिमान छूटने पर ये विकार छूट जाते हैं, तभी आत्मज्ञान होता है। मन
और बुद्धि भी जीवात्मा से अलग नहीं हैं। ये इसी की योग्यताएँ हैं।
बुद्धि, विवेक, विचार, मन, इच्छा, प्रयत्न, अनुभव, स्मृति आदि इसी के गुण हैं। ब्रह्माकुमारी वाले भी जीवात्मा और परमात्मा में भेद मानते हैं। वे कहते हैं, 'सभी की आत्माएँ भिन्न-भिन्न हैं। आत्मा कभी परमात्मा नहीं हो सकती, न आत्मा परमात्मा है।' जैन धर्म भी आत्माएँ भिन्न मानता है। यह सारी व्याख्या जीवात्मा के तल की ही हैं जो ईश्वर से भिन्न है । शुद्ध आत्मा और ईश्वर में भेद नहीं है।
(स) जीवात्मा की अनादिता
जीव और उसके कर्म अनादि हैं.। प्रलयकाल में भी उसकी सत्ता एवं सूक्ष्म विभाग का अभाव नहीं होता। जीव और उसके