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ब्रह्म, आत्मा और शरीर
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मार्ग है। वास्तविक धर्म नैतिकता से ऊपर की स्थिति है। अध्यात्म में प्रवेश होने पर ही वह धार्मिक होता है। आत्म-- . ज्ञान के बाद ही व्यक्ति परिपूर्ण होता है।
नैतिकता का सम्बन्ध मन तक ही सीमित है कि उसे बुराई से बचा ले। धर्म इस मन के पार की अवस्था है। आत्मज्ञान से ही मुक्ति होती है। नियम, संयम का सम्बन्ध भी मन तक ही है। आत्मज्ञान पर मनुष्य-कृत नहीं, ईश्वरीय नियम ही महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं । शास्त्र पढ़ने, कर्म एवं आचरण से ज्ञान नहीं होता । स्वयं देखने से मिलता है । ऐसे ज्ञान की अभिव्यक्ति भी नहीं होती। आत्मा के ऊपर की जमी धूलि को झाड़े बिना आत्मानुभव सम्भव नहीं। आत्मज्ञान में मृत्यु का अनुरूप होता है, तभी अमृत की उपलब्धि होती है। मृत्यु से ही नवजीवन मिलता है। पुराने को ढोते रहने से नया नहीं मिल सकता। नयें के लिए पुराने का त्याग आवश्यक है। नया मकान बनाने में पुराने को गिराना आवश्यक है। पुराने खण्डहर पर नया भवन निर्मित नहीं हो सकता।
आत्मानुभूति के समय वह स्वयं को शरीर से भिन्न देख ,लेता है तभी उसको प्रतीति होती है कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूं तभी उसे अमृतत्व का अनुभव होता है। धर्म चेतना से जुड़ा हुआ शास्त्र है। दर्शन (फिलॉसॉफी) की यहाँ गति नहीं है । फिलॉसॉफी जानने वाला धर्म को उपलब्ध नहीं हो सकता।