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मृत्यु और परलोक यात्रा
विलीन हो जाती है । इसी को जीव की "मुक्तावस्था" कहते हैं। इस प्रकार जड़ चेतनात्मक जगत का एकमात्र निमित्त एवं उपादान कारण वह परब्रह्म ही है जिससे सृष्टि की रचना, - संचालन एवं प्रलय होता है । यही मूल तत्व है ।
(स) ईश्वर का उद्भव
इस परम सत्ता ( परब्रह्म ) से ही व्यक्तिगत ईश्वर का "उद्भव होता है । यही ईश्वर एक से दो और दो से तीन को प्राप्त होता है जिसे " त्रिमूर्ति" कहा जाता है । वह ईश्वर ही " शब्द ब्रह्म" है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश इसके तीन रूप हैं। आत्मा की भी इसी के अनुसार तीन उपाधियाँ हैं—स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर । इसकी चौथी अवस्था शान्त, अद्वैत, शिव की है। इसी त्रिमूर्ति से देवताओं की उत्पत्ति होती है जो सृष्टि के व्यवस्थापक हैं । यह ईश्वर उस अव्यक्त ब्रह्म का व्यक्त स्वरूप है। मनुष्य इस व्यक्त ईश्वर का प्रतिबिम्ब है । उसकी अन्तरात्मा अनादि और ईश्वर रूप है ।
उस परब्रह्म में असंख्य सृष्टियाँ और प्रत्येक में असंख्य सूर्य- मण्डल है । प्रत्येक सूर्यमण्डल का अधिपति उसका ईश्वर है । प्रत्येक ईश्वर अपनी सृष्टि की रचना करता है । ये कल्पारम्भ में जब योग निद्रा से जागते हैं तो सृष्टि का सम्पूर्ण चित्र उनके मन में आ जाता है। उनके "एकोऽहं बहुस्याम" (मैं एक हूं, अनेक हो जाऊँ) के संकल्प से "ब्रह्मा" उत्पन्न होते हैं। दूसरे देव ऋषि भी ईश्वरेच्छा से आते हैं व उसी चित्र के अनुसार सृष्टि का विकास करने लगते हैं । इस विकास परम्परा का -आदि या अन्त हम नहीं जान सकते किन्तु इस सम्पूर्ण विकास