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मृत्यु और परलोक यात्रा (ख) आत्मलोक ___ सभी मनुष्यों की आत्मा में वही एक परमात्मा स्थित है। बुद्धि के विकास से ही “मैं” भाव आ जाता है। इस आत्मलोक को ही “निर्वाण लोक" कहते हैं। मनुष्य के हृदय में स्थित ईश्वर का जो मानवीय भाव है उसे “जीवात्मा" कहते हैं। साधक को पहले जीवात्मा का अनुभव होता है। यह लोक उसी के उत्तम एवं शुद्ध स्वरूप का लोक है ।
वेदान्त में इसे "ब्रह्मलोक" कहा है। यह शुद्ध आत्मा का लोक है। इसमें जीवात्मा की सभी दैवी शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। यह जीवन्मुक्त महात्माओं का निज स्थान है। जिन्होंने मानव जीवन की सब उन्नति प्राप्त कर ली है। यहाँ महात्मागण अपने कारण शरीर में दूसरों के कल्याण के लिए सदेह रहते हैं जिससे दूसरों का कल्याण कर सकें। यह इनकी शुद्ध अहंता रहती है। यहाँ द्वैत भाव नहीं रहता। ईश्वर की शुद्ध किरण को बुद्धिरूपी झिल्ली (आवरण) घेर लेती है तो वह ईश्वर से पृथक प्रतीत होने लगता है। इसे फिर मनोमय कोश की अरूप प्रकृति घेर लेती है। यह अण्डाकार कोश होता है। ईश्वर की पहली चिंगारी आत्मा, दूसरी बुद्धि तथा तीसरी मनस है जो परस्पर मिल जाती है । यही जीवात्मा का स्वरूप बन जाता है।
यह आत्मलोक ही कुण्डलिनी शक्ति का निज स्थान है, यह हृदयरूपी गुफा में है । इसी में पहुंचकर अमृतत्त्व की प्राप्ति होती है। यही मोक्ष अवस्था है। यहीं पहुंच कर “एकोऽहं द्वितीयो नास्ति" की अनुभूति होती है। स्व को खोना ही इसे पाने का मार्ग है।