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ब्रह्मविदों की परलोक यात्रा
( १ ) परब्रह्म को प्राप्त होना
जो समस्त प्रकार के भोगों से विरत है उन्हीं को ब्रह्म साक्षात्कार होता है, अन्य को नहीं । किसी भी प्रकार की कामना ब्रह्म प्राप्ति में बाधक है । जिनकी समस्त कामनाएँ नष्ट हो गई हैं, यहाँ तक कि स्वर्ग के भोगों की कामना न होने पर ही वह जन्म-मरण से छूट कर अमर हो जाता है तथा उसे मनुष्य शरीर में ही परब्रह्म का अनुभव हो जाता है । ऐसे व्यक्ति अन्य किसी लोक में न जाकर सीधे ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं तथा प्रारब्ध भोग समाप्त होने पर उनका स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर के तत्त्व अपने-अपने कारण तत्त्वों में विलीन हो जाते हैं ।
यदि कोई विघ्न उपस्थित न हो तो इसी जन्म में मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है । परब्रह्म को प्राप्त होने वालों का भिन्न अस्तित्व समाप्त होकर अभेद सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । परमात्मा से विभाग नहीं रहता । साधक की यह गति किसी पुरुषार्थ, कर्म अथवा साधना का फल नहीं है ।
एक सीमा पर जाकर ये समाप्त हो जाते हैं। आगे की गति संकल्प के अनुसार होती है । यदि वह मुक्त होने का संकल्प करता है तो वह यहीं इस ब्रह्म सायुज्य को प्राप्त हो जाता है ।
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