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अर्थ-पूर्वकालमें भये गणधरादि सत्पुरुष ऐसे दिखावे हैं, कि मृत्यु से भले प्रकार दिया हुवाका फल पाइये हैं। पर स्वर्ग लोकका सुख भोगिए हैं। इसलिए सत्पुरुषनिकों मृत्युका भय क्यों होय ॥
भावर्थ-अपने कर्तव्यका फल तो मृत्यु भए ही पाईये है। जो आप छ: कायके जीवनिको अभय दान दिया, अर रागद्वेष, काम, क्रोधादिका घातकर, असत्य, अन्याय, कुशील, परधन हरणका त्यागकर, अर संतोष धारणकर, अपने आत्माको अभयदान दिया उसका फल स्वर्ग लोक बिना कहाँ भोगने में आवे । सो स्वर्ग लोकके सुखतो मृत्यु नाम मित्रके प्रसादते ही पाइये हैं । तातें मृत्यु समान इस जीवका कोई उपकारक नाहीं। इस मनुष्य पर्यायका जीर्ण देहमें कौन कौन दुःख भोगता, कितने काल रहता और प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान करके तिर्यंच, नर्क में जाय पड़ता। इसलिये अब मरणका भयकरि, अर देह, कुटुम्ब, परिग्रहका ममत्वकरि, चिंतामणी कल्पवृक्ष समान समाधिमरणको बिगाड़ भयसहित, ममतावान हुवा कुमरण कर, दुर्गति जावना उचित नहीं ॥
मागर्भा दुःख संतप्तः प्रक्षिप्तो देहपंजरे । मात्मा विमुच्यते न्येन मृत्यु-भूमिपति बिमा ॥५॥
5. Being troubled with womb's pain In body, Soul has been hidden; Real freedom, O ! it can't attain, Without the help of death-sovereign. हो गर्भ दुःख से सन्तापित;
छिपगया कलेवर में आत्मा । है विना मृत्यु नृप योग लिये,
यह मुक्त न हो सकता आत्मा ॥५॥