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मृत्यु की पीड़ा में समाधि-प्राप्ति का एक उपाय है 'आत्मस्वरूप का चिन्तन ।
मुमुक्षु 'दीपक' !
पूर्व-भव के पापोदय/अशुभोदय और असाता के उदय से जीवन में अनेक प्रकार को रोगादि पीड़ाएँ पैदा होती हैं। पीड़ा के समय यदि यह विचार किया जाय कि 'यह पीड़ा तो कर्मजन्य है और देह को हो रही है, मैं तो उससे सर्वथा भिन्न हूँ। इस प्रकार छोटी-छोटी पीड़ाओं में विचार करने से और उन दुःखों को समतापूर्वक सहन करने से हमारी सहन-शक्ति बढ़ती जाती है।
जो व्यक्ति छोटे-छोटे दुःखों से घबराता है और प्रार्तध्यान के वशीभूत हो जाता है वह मृत्यु के दुःख में समाधि कैसे रख सकेगा? जो छोटा पत्थर उठाने में भो घबराता हो, वह पर्वत के भार को कैसे सहन कर सकेगा ?
तुझे पता ही होगा... श्रमण-जीवन में 'केश-लोंच' का विधान है .. इसके पीछे भी यही रहस्य है। 'केश-लोंच के समय शारीरिक-पीड़ा होती है, परन्तु आत्म-स्वरूप के मानसिक-चिन्तन से हम उस पोड़ा को समतापूर्वक सहन कर सकते हैं । 'केश-लोंच' आदि कायिक-कष्ट मृत्यु के दुःख को हँसते मुख स्वीकार करने के लिए पूर्वाभ्यास रूप है।
• महासती मदनरेखा के पति युगबाहु की मणिरथ हत्या कर देता है। युगबाहु के पेट में छुरी भोंककर मणिरथ भाग जाता है। युगबाहु निढाल हो गिर पड़ता है. उसके मुख पर क्रोधाग्नि
मृत्यु की मंगल यात्रा-39