SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े थे। उनके मुख पर आत्म-ध्यान का प्रानन्द था."घंटों से वे कायोत्सर्ग ध्यान में मस्त थे... इसी बीच सौमिल ब्राह्मण का वहाँ अागमन हुआ। गजसुकुमाल को मुनिवेष में देखकर सौमिल का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. अत्यन्त रोषायमान होकर वह सोचने लगा, 'अरे ! इस दुष्ट ने मेरी लड़की की जिन्दगी नष्ट कर दी. यह तो बन गया बाबा मेरी बच्ची का क्या हाल होगा ?....अभी मैं इसको सबक सिखाता हूँ।'. "इस प्रकार विचार कर उसने आसपास नजर डाली। पास ही में एक चिता में जलते हुए अंगारे पड़े थे। बस! वैर का बदला लेने की भावना से उसने पास में से थोड़ी भीगी हुई मिट्टी उठाई और मुनि के मस्तक पर चारों ओर मिट्टी की पाल बनाकर उसमें जलते हुए अंगारे भर दिए और स्वयं वहाँ से चल पड़ा। गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर अंगारे पड़े हुए हैं. वे उनके मस्तक को जला रहे हैं फिर भी मुनि के मुख पर प्रसन्नता है, वे स्थिर-चित्त खड़े हैं, सोच रहे हैं—'यह अग्नि मेरे असंख्य प्रदेशों में से एक भी प्रदेश को जला नहीं रही है और न ही जलाने में समर्थ है। जो जल रहा है वह मैं नहीं हूँ और जो 'मैं हूँ' वह जल नहीं रहा है तो मुझे किस बात की चिन्ता ? हाँ ! यदि मैंने मस्तक हिला दिया तो अंगारे नीचे गिर जाएंगे और भूमि पर रहे निरपराध जीव बेमौत मारे जाएंगे."अतः मुझे अपने मस्तक को स्थिर रखना चाहिये-इस प्रकार सोचते हुए वे अपने मस्तक को लेश भी नहीं हिलाते हैं... वे शुक्ल ध्यान की धारा में आगे बढ़ते हैं और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर समस्त घातीअघाती कर्मों का क्षय कर देते हैं। अग्नि उनके स्थूल देह को मृत्यु की मंगल यात्रा-37
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy