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________________ .."प्रतः किस समय अपने आयुष्य की डोर टूट जाएगी, इसका कोई पता नहीं है। _ 'जातस्य हि ध्र वो मृत्युः' जो आत्मा इस संसार में किसी देहधारी के रूप में जन्म लेती है, तो उसकी मृत्यु निश्चित ही है चाहे वह देव हो या मनुष्य, तिर्यंच हो या नारक । जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु अनिवार्य है परन्तु मृत्यु के बाद जन्म वैकल्पिक है। जो आत्माएँ अपने वर्तमान मनुष्य-जीवन में घाति-प्रघाति समस्त कर्मों का क्षय कर देती हैं..."उनकी भी एक बार मृत्यु तो होती ही है परन्तु वे आत्माएँ अपनी अन्तिम मृत्यु के द्वारा अमरत्व प्राप्त कर लेती हैं और सदा के लिए जन्मजरा और मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाती हैं। परन्तु जो आत्माएँ कर्म-बन्धन से ग्रस्त हैं, उन आत्माओं को अपने कर्मानुसार जन्म धारण करना ही पड़ता है। __ जन्मस्थल की पसंदगी भी स्वैच्छिक नहीं है। हर जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही गति और जाति में जन्म धारण करता है । प्रभु महावीर स्वामी ने ठीक ही कहा है 'कम्मरणा बंभरगो होइ, कम्मुरणा होइ खत्तियो।' आत्मा की अपनी कोई जाति नहीं है परन्तु अपने कर्म के अनुसार ही आत्मा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि बनती है। • अत्यन्त प्रारम्भ-समारम्भ और परिग्रह में आसक्त आत्मा नरक आयुष्य का बंध करती है। • मायाधीन आत्मा तिर्यंच आयुष्य का बंध करती है। मृत्यु की मंगल यात्रा-29
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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