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प्रत्येक जीवात्मा अपने जीवन में आगामी भव के आयुष्य का बंध एक ही बार करती है। वर्तमान में हम जिस आयुष्य/ जीवन का भोग कर रहे हैं, इसका बंध इस भव में नहीं हुआ है, बल्कि गत भव में हुआ है । ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों का बंध हमारे जीवन में प्रति पल/प्रति समय चालू है, जबकि आगामी भव के आयुष्य का बंध जीवन में एक ही बार होता है और वह बंध 'अन्तर्मुहूर्त' पर्यन्त चलता है।
आयुष्य के बंध-काल समय में हमारी आत्मा के जैसे शुभअशुभ परिणाम/अध्यवसाय होते हैं, उसी के अनुरूप/अनुसार हमारी शुभ-अशुभगति का निर्णय होता है। इससे स्पष्ट होता है कि आयुष्य बंध का काल हमारे आगामी जीवन का निर्णायक Determination of our next life है।
एक-मात्र चरम-भवी आत्माएँ अपने जीवन में आयुष्य-कर्म का बंध नहीं करती हैं। चरमभवी/शरीरी वे आत्माएँ होती हैं, जो उसी भव में कर्मबंधन से मुक्त बनने वाली हों। उन चरमशरीरी आत्माओं को छोड़कर सभी आत्माएँ अपने जीवन में एक बार अवश्य प्रायुष्य कर्म का बंध करती हैं। प्रायः वर्तमान जीवन का भाग व्यतीत होने पर आत्मा अपने आगामी भव के आयुष्यकर्म का बंध करती है। कदाचित् उस समय कर्म का बन्ध न हुआ हो तो अवशिष्ट आयुष्य का ३ भाग बीतने पर आगामी भव के आयुष्य का बंध होता है और कदाचित् उस समय भी बंध न हो तो वर्तमान जीवन के अन्त समय में तो अवश्य ही आगामी भव के आयुष्य का बंध होता है ।
आयुष्य बंध भी दो प्रकार का होता है-(१) सोपक्रम आयुष्य और (२) निरुपक्रम आयुष्य। जिस आयुष्य पर किसी
मृत्यु की मंगल यात्रा-27