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प्रिय 'दीपक' ! .
महान् पुण्योदय से प्राप्त इस मनुष्य-जीवन को भोग-वैभव और विलासिता में नष्ट कर देना बुद्धिमत्ता नहीं है। संसार के भौतिक सुख वास्तव में सुख ही नहीं हैं । महापुरुषों ने तो संसार के सुख को दुःख रूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धी ही कहा है।
जो क्षणिक हो, दुःखमिश्रित हो, पराधीन हो, उसे सुख कैसे कहा जा सकता है ? ___ All that glitters is not gold. जो कुछ चमकता है, वह सब सोना नहीं होता है-इसी प्रकार दुनिया में जो कुछ 'सुख' दिखाई देता है, वह सब सुख रूप नहीं है । वह 'सुख' या तो सुखाभास रूप होता है अथवा दुःखाभाव रूप ।
तारक तीर्थंकर भगवन्तों ने बतलाया है कि सुख प्रात्मा का स्वभाव होने से दुनिया के किसी पदार्थ में से उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । उष्णता अग्नि का स्वभाव होने से, जल से उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। जल का स्वभाव शीतलता है, गर्म जल में जो उष्णता दिखाई देती है, वह मूल रूप से जल की नहीं है, बल्कि अग्नि की ही है। अग्नि का संसर्ग दूर होने के साथ ही जल शीतल होता जाता है। बस, इसी प्रकार सुख प्रात्मा का धर्म होने से जड़ पदार्थों में से उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है।
जिस प्रकार हड्डी के टुकड़ों को जोर-जोर से चबाने से कुत्ते की दाढ़ों में से ही रक्त बहता है और उस रक्त का स्वाद प्राने पर कुत्ता यह मान लेता है कि 'मुझे इस हड्डी में से स्वाद मिल रहा है। इसी अज्ञानता के कारण वह उस हड्डी को जोर-जोर
मृत्यु की मंगल यात्रा-111