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दूर होना और परमात्म पद पाना स्वयं में एक अनिर्वचनीय अद्भुत आनन्द का सूचक है तब भला मृत्यु की बात कष्टप्रद और अमंगलसूचक कहाँ रही ? मुत्यु तो एक सहज स्वाभाविक शरीर-त्याग की प्रक्रिया मात्र है, उस मंगल यात्रा के लिए जो उस गन्तव्य पर समाप्त होती है जिसके आगे चलना शेष नहीं रहता।।
हमें शरीर, आत्मा, परमात्मा, जीवन, मृत्यु और संसार की वास्तविकता से परिचित कराती मुनिश्री रत्नसेन विजय जी म. सा. द्वारा विरचित पुस्तक “मृत्यु की मंगल यात्रा' पाठक का अन्तर्मन आलोकित करती अन्धकार से प्रकाश की योर ले जाती है।
आपश्री ने एक शास्त्र-सम्मत तथ्य को विभिन्न उदाहरणों. उद्धरणों एवं रूपकों के माध्यम से अत्यन्त सरल, सुबोध किन्तु सारगभित भाषा में प्रस्तुत किया है । प्रस्तुत पुस्तक से ही उदधृत एक शेर
न गाती है न गुनगुनाती है। मौत जब पाती है, चुपके से चली आती है ॥
से मृत्यु के आकस्मिक अागमन को प्रमाणित किया है तो दूसरी ओर महाराजा साहब ने "नाऽहं मृत्योबिभेमि" का निडर निनाद भी किया है । मुनि गजसुकुमाल, महात्मा सिंह, अणिकापुत्र प्राचार्य के जीवनप्रसंग द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि मृत्यु में समाधि का भाव रखने पर किसी प्रकार के कष्ट की अनुभूति नहीं होती।
विभिन्न शिक्षाप्रद प्रेरक पत्रों के बीच वे स्थल अपने स्वाभाविक निरूपण के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं सटीक जान पड़ते हैं जहाँ कहा गया है
‘मृत्यु कोई दुःख-मुक्ति का उपाय नहीं है।'
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