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________________ हमारी अन्तश्चेतना के ऊर्वीकरण के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है। आज मैं इस ग्रन्थ की चौथी गाथा को यथामति समझाने का प्रयास करूंगा। ग्रन्थकार महर्षि लिखते हैंही संसार-सहावं , चरियं नेहाणुरागरत्ता वि। जे पुव्वण्हे दिट्ठा, ते अवरह न दीसंति ॥४॥ अर्थ- अहो ! संसार का स्वभाव कैसा है ! जो पूर्वाह्न में स्नेह के अनुराग से रक्त दिखाई देते हैं...वे अपराह्न में दिखाई ही नहीं देते हैं। मुमुक्षु 'दीपक' ! याद है न तुझे ? एक बार मैंने तुझे प्रदेशी राजा को कहानी सुनाई थी। प्रदेशी राजा और सूर्यकान्ता महारानी के बीच कितना अपूर्व प्रेम था ! वे दोनों एक-दूसरे के वियोग को सहन नहीं कर पाते थे। परन्तु वह प्रेम कब तक टिका रहा? उसी सूर्यकान्ता महारानी ने अपने पति प्रदेशी राजा को जहर का कटोरा पिला दिया और अपने नाखूनों से उसका गला दबोच दिया था। परपुरुष के संग में आसक्त बनी चुलनी माता ने अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को जीवित जला देने के लिए कैसा भयंकर षड़यंत्र रचा था ? मृत्यु की मंगल यात्रा-87 .
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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