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जीवन है । जीवन जीने का यही तरीका हो सकता है ।
काकासाहेब ने इस पुस्तक में हमें इसी बात को समझाया है । वे उन इने-गिने भारतीय मनीषियों में से हैं, जिन्होंने जीवन के करीब-करीब सभी पहलुनों का गहराई से चिंतन किया है । मृत्यु के बारे में उनका चिंतन तो अपने ढंग का मौलिक है । मृत्यु उनका 'परम सखा' है । काफी परिचित, काफी घनिष्ट सखा होने के काररण उसका स्वरूप काकासाहेब के लिए हमेशा नित्य नूतन मालूम हुआ लगता है । सन १९३२ से लेकर ६७ तक के काल में जब-जब उन्होंने अपने इस सखा के बारे में कुछ कहा है, नया ही कहा है । इसीलिए उनकी यह पुस्तक विशेष महत्व रखती है । यह कोई प्रतिभावान कवि का कल्पना-विलास नहीं है, न किसी दार्शनिक का तत्त्व-चिंतन मात्र है । यह तो मृत्यु जिसका मित्र है, उसका लिखा हुआ अपने मित्र का चरित्र है ।
संभवतः विश्व - साहित्य में इस तरह की दूसरी कोई भी पुस्तक नहीं है । मौलिक विचारों के साथ-साथ काकासाहेब को भाषा-शैली पर असामान्य अधिकार है ।
प्राज से कुछ वर्ष पहले इस पुस्तक का पहला संस्करण हुआ था । पाठकों ने उसे बहुत पसंद किया। पहला संस्करण जल्दी ही समाप्त हो गया, लेकिन अनेक कारणों से इसका पुनर्मुद्ररण तत्काल न हो सका । अब बंधुवर रवीन्द्र केलेकर ने पुस्तक को परिवर्द्धित कर दिया है । उसमें से दो लेख निकाल दिये हैं श्रौर दो लेखों को काट-छांट कर एक नया लेख बना दिया है, चार लेखों को परिशिष्ट में डाल दिया है । आठ नये लेख जोड़ दिये हैं, जिनमें से दो किसी भी हिन्दी पुस्तक में अबतक नहीं प्राये हैं ।
इस प्रकार उन्होंने पुस्तक को श्रद्यतन बना दिया है। हम उनके आभारी हैं ।
हमें विश्वास है कि पुस्तक सभी क्षेत्रों में चाव से पढ़ी जायगी ।
- मंत्री