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८६ :: परमसखा मृत्यु निश्चित ख्याल भी उसे होना ही चाहिए। ये तीन तत्त्व हैं : जन्म, जीवन और मरण ।
मनुष्य कहता है, “जन्म और मृत्यु हमारे हाथ की बातें नहीं हैं। हम सिर्फ बीच के जीवन के लिए ही जिम्मेदार हैं।" यह विचार भी कहां तक सत्य है, यह भी मनुष्य को सोच लेना चाहिए। __एक बात तो सच है कि इस दुनिया में हमें लाने के पहले किसी ने हमसे पूछा नहीं । अपने माता-पिता को पसंद करना हमारे हाथ में नहीं था। हम किस देश में पैदा होंगे, किस जमाने में जीने का मौका हमें मिलेगा, किस धर्म के संस्कारों में हम पलेंगे, यह हमने पसन्द नहीं किया था, हमें मालूम भी नहीं था। यही कह सकते हैं कि यह तो दैवाधीन था।
लेकिन तत्त्व-चिन्तन करने वाला मनुष्य कहेगा कि किसी भी वस्तु को दैवाधीन कहना बौद्धिक आलस्य या जड़ता ही है।
हमारा जन्म हुआ, उसके पीछे चाहे हमारी इच्छा न रही हो, हमारे माता-पिता की इच्छा तो थी ही। उन्होंने इच्छापूर्वक, इरादतन् दाम्पत्य जीवन को स्वीकार किया, प्रयत्न-पूर्वक सहजीवन साधा और उनके संकल्प में से ही हमारा जन्म हुआ। इसलिए कैसे कह सकते हैं कि हमारा जन्म दैवाधीन था ?
ऐसी वस्तुओं के बारे में केवल तत्त्वज्ञानी ही विचार करते हैं, ऐसा नहीं है। जीवात्मा के बारे में कल्पना करने वाले धर्मपरायण कवि भी चिन्तन चला कर समझाते हैं कि एक जीवन को पूर्ण करने के बाद उस जीवन का सारा निचोड़ केवल संस्कार के रूप में साथ ले जाकर जीव माता-पिता को पसंद करके माता के गर्भ में प्रवेश करता है । जीव सचमुच ऐसा करता है या नहीं, यह कौन कह सकता है ? लेकिन इस कल्पना को सच मानें तो कहना होगा कि हमारा जन्म दैवाधीन नहीं था।