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मरण की तैयारी :: ६१ रक्षा होती है। तब मनुष्य उस रास्ते को मंजूर रखता है। उसो को हम आस्तिक कहते हैं । जनवरी, १९६१
१० / मरण की तैयारी
जीवन और मरण मिलकर के विशाल जीवन-संस्था बनती है। बारह घण्टे का दिन और बारह घण्टे की रात मिलकर जिस तरह चौबीस घण्टे का अहोरात्रवाला दिन बनता है, उसी तरह का यह शब्द-प्रयोग है।
शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष मिलकर मास होता है। परिश्रम और आराम मिलकर प्रवृत्ति होती है । प्रवृत्ति और निवृत्ति मिलकर जीवन-साधना बनती है । मौन और वाणी मिलकर मानवीय सम्पर्क बनता है। प्रयोग और चिंतन मिलकर ज्ञानवृद्धि होती है। जाग्रति और नींद मिलकर शारीरिक व्यापार सफल बनता है । श्वास और उच्छ्वास मिलकर प्राणों का व्यापार चलता है। इसी तरह जीवन और मरण दोनों की युगल रचना है।
इनमें से हमारा ध्यान जीवन पर केन्द्रित रहता है, इसलिए मरण के बारे में हम अनभिज्ञ और घबड़ाये हुए रहते हैं । ऐसा नहीं होता तो जिस आस्था से, पुरुषार्थ से और कौशल से, हम जीवन की तैयारी करते हैं, उसी उत्कटता से हम मरण की भी तैयारी करते। ___ यह बात सही है कि मृत्यु के बाद क्या है, इसके बारे में हम निश्चित रूप से कुछ नहीं जानते ; लेकिन हमने जीवन में कहां से किस तरह प्रवेश किया, सो भी तो हम नहीं जानते। मरण के लिए तैयारी करना जितना आसान और स्ववश है,
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