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४० : : परमसखा मृत्यु
था। रोमन लोगों में भी यह रोग किसी समय फैला हुआ था । उसे दूर करने के लिए समाज - नेताओं को असाधारण परिश्रम करना पड़ा था । "यह संसार प्रसार नहीं है, तथ्यपूर्ण है । इसलिए उसके प्रति उदासीन न बनो । जी-जान से जोश्रो "ऐसा उपदेश और प्रचार करना पड़ता था ।
इसके विरुद्ध समाज में ऐसे भी कालखंड पाये जाते हैं, जब लोग देह-पूजक बनते हैं । चाहे जितनी भीरुता और हीनता बरदाश्त करके भी जीने के लिए उत्सुक होते हैं । वह जीवि - तेष्णा मनुष्य को बिल्कुल पामर बना देती है ।
जो आदमी फौज में भर्ती होता है, वह आज्ञा पाने पर देश के शत्रु को मारने के लिए वचनबद्ध होता है; लेकिन साथ-साथ वह मारे जाने के लिए भी तैयार रहता है। यही है असली क्षत्रिय धर्म । अपनी जान खतरे में डाले बिना दूसरे किसी को मारने के लिए जो तैयार होता है, उसे खूनी या जल्लाद कहते हैं । जो पुरुष मरने के लिए भी तैयार है, वही सच्चा क्षत्रिय है । युद्ध में मरने के लिए तैयार रहना, इस वृत्ति को कोई विभव तृष्णा नहीं कहेगा । मरण का खतरा मोल लेना, उसके लिए तैयार रहना, यह एक बात है और अब तो जीना ही नहीं, मरना ही है, ऐसा सोचकर, जो मनुष्य मरने पर उतारू होता है, वह दूसरी बात है ।
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मर मिटने की वासना प्रकृति के अनुकूल नहीं है । समाज में कभी-कभी रोग के तौर पर वह कुछ दिन के लिए फैल जाय, यह हो सकता है; लेकिन वह समाज का स्थायी अंग नहीं बनती है । आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि प्रेरणाएं जैसी विश्वजनीन हैं, अदम्य हैं; स्वाभाविक या प्राकृतिक हैं, वैसी विभव तृष्णा नहीं है । इसलिए उसके सार्वभौम होने का डर हो नहीं सकता । रोग की तरह किसी समय जो चीज अल्पकाल के लिए फैलती