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१४० :: परमसखा मृत्यु मित्र ही माना है। पूर्ण विराम भले न हो, लेकिन नये प्रस्थान के लिए जरूरी विराम तो वह है ही। १९६५
२५ / उपसंहार एक बंगाली कहावत है, मौत से बढ़कर—“तू मर जा", ऐसे वचन से बढ़कर कोई गाली या शाप हो नहीं सकता। मनुष्य मौत का नाम भी नहीं सुनना चाहता । रविबाबू के उपन्यासों में इस कहावत का जिक्र कहीं-कहीं पढ़ा है, लेकिन रविबाबू मौत को कभी भी अशुभ नहीं मानते थे। रविबाबू काफी जिये। किसी ने मुझसे पूछा कि रविबाबू की दीर्घायुता का कारण क्या
- कवि की दीर्वायुता का कारण देना है तो वह वैज्ञानिक नहीं, काव्यमय ही होना चाहिए। मैंने कहा, "रविबाबू ने अपनी काव्यनिर्मिति के प्रारम्भ से ही जीवनसंध्या और मृत्यु पर लिखना शुरू किया। उनके चिन्तनात्मक काव्य में मृत्यु का जिक्र, परिचय और स्वागत बार-बार आते हैं । मृत्यु ने सोचा होगा, जहां सारी दुनिया मेरा तिरस्कार करती है, वहां यह एक कवि मुझे पहचानता है। मेरी ओर से मेरा सच्चा प्रचार भा करता है। उसे इस दुनिया में रहने देना ही अच्छा है। अपना पक्ष लेने वाला, अपना परिचय कराने वाला, इस दुनिया में कोई रहे तो इष्ट ही है।" ___ अथवा ऐसा भी हो सकता है कि रविबाबू के मुंह से अपने स्तोत्र सुनकर मृत्यु महाशय प्रसन्न हुए होंगे और उनको यहां से उठाकर ले आने का उन्हें सूझा भी नहीं होगा। जहां अति परिचय है, वहां अनवधान होता ही है।