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१३० :: परमसला मृत्यु
मुक्त करना और समाज की तटस्थ, अनासक्त, निरपेक्ष सेवा करते-करते विश्व के साथ, सबके साथ अपनी प्रात्मीयता का अनुभव करना, यही है मोक्ष-भावना । इसमें राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा विषयक पारतंत्र्य को दूर करना, समाज में फैली हुई असामाजिक प्रवृत्तियों को रोकना, प्रज्ञान, अन्याय, शोषण और संघर्ष के वायुमंडल से समाज को छुड़ाना, यह भी मोक्ष-भावना का ही अंग है । मोक्ष के मानी हैं दोष, एकांगिता, संकुचितता, अकर्मण्यता, विलासिता आदि दोषों से मुक्त बनाकर समाज को शुद्ध, समर्थ, स्वायत्त और जीवनसमृद्ध बनाना ।
मोक्ष की हमारी यह शुद्ध भावना ही ऐसी है कि समाज के मोक्ष के बिना व्यक्ति को संतोष नहीं होता । लेकिन व्यक्ति को अपना मोक्ष पाने के लिए समाज की सार्वत्रिक मुक्ति की राह देखने की जरूरत नहीं है। किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति को अपना मोक्ष मिल ही सकता है और अपना मोक्ष - 'प्रत्येक ' मोक्ष पाने के साथ सामाजिक मोक्ष के लिए समाज की सेवा करने की वृत्ति, शक्ति और युक्ति बढ़ती जाती है । इस अर्थ में मुक्ति सद्यो मुक्ति भी है और क्रममुक्ति भी है ।
मोक्ष की ऐसी व्यापक और शुद्ध भावना के साथ मोक्ष की साधना भी व्यापक, उत्कट और सर्वांगीण बनने लगी है । उसका गहरा चिंतन अभीतक हुआ नहीं है, इसलिए हमारी आध्यात्मिक प्रवृत्ति में कर्मवीरता अभी आई नहीं है। वह आयेगी जरूर, अवश्यमेव आयेगी ।
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