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जाया करती हैं। मनुष्य के स्मरण, चिन्तन व प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रियाओं में भी किसी प्रकार का समन्वय नहीं रहता है । यह वो अवस्था होती है जबकि मनुष्य में तर्क का पूर्णत: अभाव रहता है । यही कारण है कि जब निद्रावस्था में किसी प्रकार की उत्तेजना किसी ज्ञानेन्द्रिय को प्रभावित करती है तो उसके प्रतिक्रिया स्वरूप स्वप्न दृष्टिगोचर होता है । जैसे कि एक व्यक्ति सो रहा है और उसका एक हाथ हृदय पर पड़ा हुआ है या व्यक्ति उलटा होकर सो रहा है जिससे कि हृदय पर दबाव पड़ रहा है । तब क्या होता है ?, हृदय को कार्य कर पाने में बाधा उत्पन्न होती है और जब यह बाधा अधिक बढ़ जाया करती है तब व्यक्ति को भयानक व डरावने स्वप्न दिखाई पड़ते हैं और स्वप्न के प्रभाव से द्रष्टा डरकर चीखता है या भयभीत होकर जग जाता है । उस समय वह पसीने-पसीने हो रहा होता है और श्वास भी तीव्र चल रही होती है । इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि सुषुप्तावस्था में किसी प्रकार की चेतन मानसिक प्रक्रिया के अभाव में उत्तेजनाओं का वास्तविक ज्ञान प्राप्त न होकर दोषपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है । यही कारण है कि प्राय: स्वप्न निरर्थक, असंगत व हास्यास्पद प्रतीत होते हैं । जैसा कि मैंने अभी उदाहरण देकर कहा है ।
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यह स्वप्न-विज्ञान के दैहिक नियम का पहला पक्ष है, जिसके अनुसार निद्रावस्था में किसी उत्तेजना का उचित ज्ञान न होकर तरह-तरह के स्वप्नों का दर्शन प्राप्त होता है ।
2. दूसरा पक्ष - जब किसी प्रकार की उत्तेजना मनुष्य की किसी ज्ञानेन्द्रिय को प्रभावित करती है तो उस समय जबकि मन सुषुप्तावस्था में है, फिर भी वह उस उत्तेजना की व्याख्या करता है । इसके परिणामस्वरूप स्वप्न दिखाई देते हैं।
इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि स्वप्नों का आधार कोई न कोई उत्तेजना होती है।