________________
लेकिन अभ्यास बल मारता है। जब अकेले बैठते हो तो एकाकीपन में जी घबड़ाता है। जी तो भीड़ से मिला है। वह भीड़ का हिस्सा है। जिसको तुम जी कहते हो, जिसको तुम मन कहते हो, वह तुम्हारा नहीं है। तुम इस भ्रांति में मत रहना कि मन के तुम मालिक हो। मन का मालिक तो भीड़ है; भीड़ ने ही दिया है। इसलिए तो मन को छोड़कर ही कोई भीड़ के बाहर जा सकता है। जी नहीं लगता, यह बात तो समझ में आ जाती है। जी लगेगा कैसे? जी तो भीड़ का है। जी तो भीड़ के ही अभ्यास से ही निर्मित हुआ है। इस जी को भी छोड़ना पड़ेगा तो ही एकांत में रस आयेगा। - इसलिए तो ध्यान का अर्थ होता है : मन से मुक्ति। भीड़ से मुक्ति शुभ आरंभ है; मन से मुक्ति भी चाहनी होगी। क्योंकि मन भीड़ का ही हिस्सा है तुम्हारे भीतर बैठा हुआ।
तुम जरा अपने मन की जांच करो। तुम्हारे मन में जो भी है, सब भीड़ का ही दिया हुआ है। भीड़ ने कहा कि तुम हिंदू हो तो तुम हिंदू हो। और भीड़ ने कहा कि तुम सुंदर हो तो तुम सुंदर हो। और भीड़ ने कहा कि तुम बड़े बुद्धिमान हो तो बुद्धिमान हो। ये सब भीड़ की ही मान्यताएं हैं। इन्हीं को इकट्ठा कर लिया, यही तुम्हारा जी है। इस जी को भी छोड़ देना होगा। तुम जी से पार हो। तुम्हारा वास्तविक होना मन के पार है। तुम्हारा वास्तविक होना परमात्मा से आता है, भीड़ से नहीं आता। भीड़ ने तो जो परमात्मा से आया है, उसके ऊपर एक रंग-रोगन की दीवाल खड़ी कर दी है, पर्दा डाल दिया है। उस पर्दे को तुम पकड़े हो। ___तो भीड़ से मन ऊब गया, ठीक हुआ। अब यह भी समझो कि भीड़ ने जो-जो दिया है, वह भी छोड़ देना होगा; नहीं तो अकेले में मन न लगेगा। मन कहेगा, वहीं चलो जहां मेरे प्राण हैं। जहां मेरा मूल उदगम है, जहां मेरा स्रोत है, जहां मेरी जड़ें हैं-वहां चलो। मन तो भीड़ में ही ले जायेगा। अ-मन में चलना होगा। इसलिए तो कबीर कहते हैं : अ-मनी दशा! भीड़ से जिसे वस्तुतः मुक्त होना है, वह बिना मन से मुक्त हुए न हो पायेगा।
इसलिए तो मैं तुमसे कहता हूं : जंगल जाने से न होगा। अगर तुम्हें जरा-सी समझ हो तो भीड़ में खड़े-खड़े अकेले हो सकते हो। मन छूट जाये बस!
समझो, तुम हिंदुओं की भीड़ में खड़े हो, लेकिन तुमने यह भाव छोड़ दिया कि मैं हिंदू हूं। चारों तरफ हिंदुओं की भीड़ सागर की तरह लहरा रही है या मुसलमानों की या ईसाइयों की; लेकिन तुम उस भीड़ में खड़े हो और तुम्हारे मन में यह भाव नहीं रहा कि मैं हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं। क्या तुम इस भीड़ के हिस्से हो? भीड़ में खड़े हो, दिखाई पड़ते हो; लेकिन बड़े अदृश्य मार्ग से तुम मुक्त हो गये। भीड़ कहती है कि तुम सुंदर हो और तुम यह समझ गये कि दूसरे की बातों से कैसे पता चलेगा कि मैं कौन हूं-सुंदर कि असुंदर, कि स्वस्थ कि अस्वस्थ, कि ईमानदार कि बेईमान, कि नैतिक कि अनैतिक-दूसरे से कैसे पता चलेगा! यह दूसरे के आधार पर मैं अपने को कैसे जानूंगा! ये दूसरे अपने को ही नहीं जानते, ये मुझे ज्ञान दे रहे हैं! आत्मज्ञान को तो सीधे-सीधे पाना होगा, किसी के माध्यम से नहीं। ये उधार बातें आत्मज्ञान नहीं बनेंगी। ऐसा तुम जाग गये और धीरे-धीरे तुमने उधार बातें छोड़ दीं। अब तुम भीड़ में खड़े हो, जहां लोग तुम्हें बुद्धिमान मानते हैं या बड़ा नैतिक पुरुष मानते हैं; लेकिन तुम्हारे मन में अब यह कोई धारणा न रही। तुम जानते हो कि भीड़ को बीच में नहीं लेना है। अब तुम भीड़ के भीतर भी खड़े भीड़ के बाहर हो।
एकाकी रमता जोगी