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ष्टावक्र कहते हैं कि संसार में कोई परम सुख है तो वह है स्वतंत्र हो जाना — “स्वातंत्र्यात् सुखमाप्नोति । ”
मगर इस स्वतंत्रता का अर्थ क्या है ? संपूर्ण मर्यादाओं से, सीमाओं से, सुख-दुख से यम-जप, नियम - उपनियम, सबसे स्वतंत्र हो जाना ।
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जीवन में अगर परतंत्रता हो तो फिर सुख कहां ? दुख ही दुख होता है। बेड़ियां किसी और ने पहनाईं या हमने स्वयं पहनीं, वस्तुतः वह है तो परतंत्रता ही । शास्त्र हमारे हों या किसी और के, जो पराधीन करे वह बंधन ही है।
पराधीनता है— सिंह को पिंजरे में बंद कर देना । परतंत्रता है मानो सीमा रेखा खींच देना। स्वतंत्रता है असीम, सीमा रहित, उन्मुक्त आकाश ।
लेकिन यह स्वतंत्रता भी आधी स्वतंत्रता है— जब तक कि हम यह जान न लें, किससे स्वतंत्र होना है, किसके लिये स्वतंत्र होना है - और जिस क्षण यह दोनों बातें मिल जाएं उसी क्षण ज्ञान का झरना फूट पड़ता है, अंदर का कमल खिल उठता है । और जिस दिन यह सारे बंधन मिटे कि अंदर की ज्योति जली, उसी दिन परम ज्ञान की घड़ी घटी। अब हम इसे परम कहें, सत्य कहें, ब्रह्म कहें, ज्ञान कहें, जो चाहें समझें ।
परम का अर्थ है इससे आगे जानने की अब कोई इच्छा नहीं रही, यही चरम है। और जब परम ज्ञान मिल गया तो जीवन की भागमभाग और दौड़ मिट जाती है ।
योग, न्याय वैशिष्ट्य, दर्शन के विशिष्ट ऋषि महाऋषि पतंजलि “समाधि" पर जा कर संपूर्ण होते हैं । और जहां पतंजलि संपूर्ण होते हैं, अष्टावक्र वहां से आरंभ होते हैं। अष्टावक्र अर्थात आठ स्थान से टेढ़ा-मेढ़ा ऋषि, और निश्चय ही इसे समझने के लिए “अष्टबुद्धि" चाहिए ।
अष्टावक्र जितने टेढ़े हैं ओशो उतने ही सीधे, सहज, सरल हैं। स्वयं ओशो ने भी कभी कहा है — “मैं जितना सीधा चलना चाहता हूं, दुनिया मुझे उतना ही टेढ़ा समझती है। " सही मायने में ओशो बाहर से अष्टावक्र के आधुनिक अवतार हैं — ठीक वैसे ही जैसे अष्टावक्र बाहर से टेढ़े हैं— और यह बात ओशो के साथ अकसर घटती है कि जब ओशो बुद्ध पर बोलें तो लगता है मानो स्वयं बुद्ध