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'लेकिन कोई ज्ञानी मूढ़वत होकर संकोच या समाधि को प्राप्त होता है।' . संकोचममूढ़ः कोऽपि मूढ़वत्।
कोई धीरे-धीरे अपने व्यर्थ के फैलाव को सिकोड़ लेता है, अपने व्यर्थ के व्यापार को सिकोड़ लेता है। जैसे मछुआ अपने जाल को सिकोड़ लेता है, जैसे सांझ सूरज अपने जाल को सिकोड़ लेता, ऐसा कोई ज्ञानी तत्व की बात सुन लेता है तो मूढ़वत हो जाता है। संसार से अपने को ऐसे तोड़ लेता है जैसे मूढ़ हो गया। अब संसार से कुछ लेना-देना नहीं। और समाधि को प्राप्त हो जाता है। _ 'अज्ञानी चित्त की एकाग्रता अथवा निरोध का बहुत-बहुत अभ्यास करता है, लेकिन धीरपुरुष सोये हुए व्यक्ति की तरह अपने स्वभाव में स्थित रहकर कुछ करने योग्य नहीं देखता है।'
यह सूत्र भी खूब ध्यानपूर्वक सुनना। एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यस्यते भृशम्। धीराः कृत्यं न पश्यति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः।।
अज्ञानी चित्त तो बड़ी एकाग्रता और निरोध का बहुत-बहुत अभ्यास करता है। अज्ञानी को अगर धन पकड जाती है...अज्ञानी बडा धनी होता है. पागल होता है। धन की धन पकड जाये तो धन के पीछे लग जाता है, ध्यान की धुन पकड़ जाये तो ध्यान के पीछे लग जाता है। अज्ञानी जिद्दी होता है, हठी होता है। अज्ञानियों ने ही तो हठ योग पैदा किया है। पागल की तरह लग जाता है। फिर.सारा अहंकार उसी में लगा देता है। ___'अज्ञानी चित्त की एकाग्रता अथवा निरोध का बहुत-बहुत अभ्यास करता है, लेकिन धीरपुरुष सोये हुए व्यक्ति की तरह अपने स्वभाव में स्थित रहकर कुछ करने योग्य नहीं देखता।'
सुप्तवत् स्वपदे...।
ज्ञानी तो धीरे-धीरे अपने में विश्रांति को पहुंच जाता है। जैसे नींद में, गहरी नींद में तुम्हारा अहंकार । कहां होता है? गहरी नींद में जब स्वप्न भी खो जाते हैं तब तुम्हारे विचार कहां होते हैं? गहरी नींद में, जब मन में कोई तरंग नहीं होती, तुम्हारी कौन-सी सीमा होती है? गहरी सुषुप्ति में तुम महाशय हो जाते हो। न तुम पति रह जाते न पत्नी, न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई न बौद्ध, न स्त्री न पुरुष, न बाप न बेटे, न गरीब न अमीर, न जवान न बूढ़े, न सुंदर न कुरूप। गहरी प्रसुप्ति में तुम्हारे सब विशेषण समाप्त हो जाते हैं। तुम होते हो जरूर लेकिन बड़े विराट हो जाते हो।
अष्टावक्र कह रहे हैं कि ज्ञानी पुरुष ऐसे जीने लगता है जैसे प्रतिपल गहरी सुषुप्ति में है। न अहंकार, न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई न बौद्ध, न सुंदर न कुरूप, न धनी न गरीब, न नैतिक न अनैतिक, न साधु न असाधु-कोई भी नहीं।
धीराः कृत्यं न पश्यंति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः।
जैसे गहरी नींद में कोई अपने स्वपद में लीन हो जाता है, ऐसे ही ज्ञानी अपने स्वभाव में लीन हो जाता है। और फिर स्वभाव से जो होता है सहज, वही होने देता है। करने योग्य...कुछ करना है ऐसी कोई धुन, कुछ करना है ऐसा कोई आग्रह, कुछ करके दिखाना है, कुछ होना है, ऐसी कोई हठवादिता उस में नहीं रह जाती।
और ऐसी अवस्था में तुम सब जगह परमात्मा को पाओगे। अपने स्वपद को जिसने पा लिया
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अष्टावक्र: महागीता भाग--5