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________________ सीखेगा, सबसे ज्यादा विदेशी...! अब सबसे ज्यादा विदेशी क्या होता है? लेकिन अहंकार रास्ते खोजता है । अहंकार को हर जगह प्रथम होना चाहिए। तो एक बड़ी मजे की घटना घटती है, आदमी विनम्रता तक में अहंकार खोज लेता है। वह कहता है, मुझसे विनम्र कोई भी नहीं । मुझसे विनम्र कोई भी नहीं ! तो यहां भी अहंकार मजे रहा है। यहां भी प्रतिस्पर्धा जारी है। बस, तुम एक बात छोड़ दो तो संन्यास घट गया। तुम यह मैं-भाव छोड़ दो। और मजा तो यह है, इसको छोड़कर कुछ छूटेगा नहीं, इसको छोड़कर तुम बहुत कुछ पाओगे । इसको पकड़ने के कारण सब छूटा हुआ है। इसको पकड़ने के कारण तुम दीन-दरिद्र बने हो। इसको पकड़ने के कारण तुम्हें सीमा मिल गई है। इसको छोड़ते ही फूल मुक्त हो जायेगा, गंध हवाओं में उड़ेगी। इसको छोड़ते ही बूंद सागर बनेगी। इसको छोड़ते ही तुम परमात्मा के आवास हो जाओगे । तीसरा सूत्र - पुनः अत्यंत क्रांतिकारी । 'मुक्त पुरुष का उद्वेगरहित, संतोषरहित, कर्तृत्वरहित, स्पंदरहित, आशारहित और संदेहरहित चित्त ही शोभायमान है।' नोद्विग्नं न च संतुष्टमकर्तृस्पंदवर्जितम् । निराशं गतसंदेहं चितं मुक्तस्य राजते ।। एक-एक शब्द को समझने की चेष्टा करें। 'मुक्त पुरुष का उद्वेगरहित... ' यह तो समझ में आता है। यह तो और शास्त्र भी कहते हैं कि मुक्त पुरुष में कोई उद्वेग न होगा, परम शांति होगी। लेकिन तत्क्षण अष्टावक्र कहते संतोषरहित । हम तो आमतौर से सोचते हैं कि जो शांत है वह संतुष्ट होगा। हमारा तो संतोष का अर्थ ही होता है, शांत व्यक्ति को हम कहते हैं, बड़ा संतुष्ट, बड़ा शांत, बड़ा सुखी। संतोषी सदा सुखी। अष्टावक्र कुछ गहरी बात कह रहे हैं। अष्टावक्र कहते हैं, संतोष भी उद्वेग की छाया है। जो उद्विग्न होता है वह कभी-कभी संतुष्ट भी होता है। लेकिन जिसका उद्वेग ही चला गया, अब कैसा संतोष ! जहां असंतोष न रहा वहां कैसा संतोष ! जब असंतोष ही न रहा तो संतोष भी गया । ! तुम जरा ऐसा समझो; जो आदमी सदा से स्वस्थ रहा है, जो कभी बीमार नहीं हुआ, उसे स्वस्थ होने का पता भी नहीं चलता । चल भी नहीं सकता। पता चलने के लिए बीमारी जरूरी है। बीमारी खटके, बीमारी दुख दे तो स्वास्थ्य का पता चलता है। अगर बीमारी हो ही न तो स्वास्थ्य कैसा । जिस दिन बीमारी गई उसी दिन स्वास्थ्य भी गया। स्वास्थ्य और बीमारी साथ-साथ; एक ही सिक्के के दो पहलू । असंतोष- संतोष साथ-साथ । अशांति - शांति साथ-साथ । सुख-दुख साथ-साथ; एक ही सिक्के के दो पहलू | इसलिए पहली बात जब वे कहते हैं उद्वेगरहित, तो उन्होंने बड़ी महत्वपूर्ण बात कह दी। आगे के लिए अब वे साफ करते हैं, संतोषरहित । क्योंकि कहीं भूल न हो जाये। कहीं तुम यह न समझ लो कि उद्वेगरहित आदमी का अर्थ होता है संतोषी । संतोष वहां कहां ? संतोष तो असंतुष्ट आदमी की लक्षणा है। 66 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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