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बंधन का अर्थ है, हम भविष्य से बंधे हैं। बंधन का अर्थ है, भविष्य की वासना की डोर हमें खींचे लिये जाती है और हम आज मक्त नहीं हो पाते। भविष्य हमें बांधे है। वर्तमान मक्त करता है। वर्तमान मक्ति है। मोक्ष अभी है और संसार कल है। ___ तुमने अक्सर उल्टी बात सुनी है। तुमने सुना है, संसार यहां है और मोक्ष वहां है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं मोक्ष यहां है, संसार वहां है। अभी जो मौजूद है यही मुक्ति है। अगर तुम इस क्षण में लीन हो जाओ, तल्लीन हो जाओ, डुबकी लगा लो, तुम मुक्त हो गये। तुम अगर कल की डोर में बंधे खिंचते रहो तो तुम्हारे पैर में जंजीरें पड़ी रहेंगी। तुम कभी नाच न पाओगे। तुम्हारे जीवन में कभी आभार का, आशीष का क्षण न आ पायेगा।
अष्टावक्र कहते हैं, इसका अर्थ हुआ कि मुमुक्षा भी बंधन है। मोक्ष की आकांक्षा भी तो कल में ले जाती है। मोक्ष तो कभी होगा, मरने के बाद होगा, मृत्यु के बाद होता है। अगर जीवन में भी होगा तो आज तो नहीं होना है। बड़ी साधना करनी होगी, बड़े हिमालय के उत्तुंग शिखर चढ़ने होंगे। गहन अभ्यास, महायोग, तप, जप, ध्यान, फिर कहीं अंतिम फल की भांति आयेगा मोक्ष। प्रतीक्षा करनी होगी। धीरज रखना होगा। श्रम करना होगा। मोक्ष फल की तरह आयेगा।
मोक्ष फल नहीं है, मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। इसलिए मोक्ष कल नहीं है, मोक्ष अभी है, यहीं है। तो मुमुक्षा बाधा बनेगी। जो मुमुक्षा से भरा है वह कुतूहल से तो बेहतर है, जिज्ञासा से भी बेहतर है, लेकिन उससे भी ऊपर एक दशा है। मुमुक्षु के पार, वीत-मुमुक्षा की भी एक दशा है; जहां अब यह भी आकांक्षा न रही कि मोक्ष हो, स्वतंत्रता हो; जहां सारी आकांक्षाएं आमूल गिर गईं। संसार की तो मांग रही ही नहीं, परमात्मा की भी मांग न रही; मांग ही न रही। _उस घड़ी तुम्हारे भीतर जो घटता है वही मोक्ष है। उस घड़ी तुम जिसे जानते हो वही परमात्मा है। उस घड़ी तुम्हारे भीतर जो प्रकाश फैलता है क्योंकि अब उस प्रकाश को बाधा डालनेवाली कोई दीवाल न रही—वही प्रकाश तुम्हारा स्वभाव है।
तो मुमुक्षा के भी ऊपर जाना है। • 'महाशय पुरुष...।'
महाशय का अर्थ होता है, जिसका आशय विराट हो गया, महा-आशय। जिसका आशय आकाश जैसा हो गया. जिसके आशय पर कोई सीमा न रही। ___ हम तो साधारणतः किसी को भी महाशय कहते हैं। शिष्टाचार तो ठीक है, लेकिन महाशय तो कभी किसी बुद्ध को, अष्टावक्र को, क्राइस्ट को, कृष्ण को, लाओत्सु को ही कहा जा सकता है। सभी को महाशय नहीं कहा जा सकता। कहते हैं, शिष्टाचार है-इस आशा में कि शायद जो आज महाशय नहीं है, कल हो जायेगा। यह हमारी शुभाकांक्षा है, लेकिन सत्य नहीं है।
महाशय का अर्थ होता है : जिसके ऊपर आकांक्षा की कोई सीमा न रही। आकांक्षा से मुक्त जिसका आकाश हो गया वही महाशय है। जिसको अब आकांक्षा का क्षितिज बांधता नहीं। जिस पर अब कोई सीमा ही नहीं है, असीम है। जिसके भीतर की चैतन्य-दशा अब किसी चीज की प्रतीक्षा नहीं कर रही है।
क्योंकि जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रहे हो उसी से अटके हो। जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रहे हो उसी
महाशय को केसा मोक्ष
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