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किसके लिए करना है ? समर्पण आदमी इसी स्वतंत्रता की खोज में करता है ।
और अगर तुम्हारे पास यह स्वतंत्रता नहीं है तो समर्पण सहयोगी है। फिर समर्पण में तुम वही खोओगे जो तुम्हारे पास है— अहंकार है तुम्हारे पास; आत्मा तुम्हारे पास अभी है नहीं । और समर्पण में आत्मा नहीं खोती, अहंकार ही खोता है ।
और अहंकार ही तरकीबें निकालता है बचने की। वह कहता अरे, यह क्या करते हो, समर्पण कर रहे? इसमें तो निजता खो जायेगी। यह निजता नाम है अहंकार का । इसे साफ समझ लेना। अगर तुमने अपने को जान लिया, अब कोई जरूरत ही नहीं है। तुम यह प्रश्न ही न पूछते। अगर तुम्हें अपनी स्वतंत्रता मिल गई है, तुम अपनी स्वतंत्रता के मालिक हो गये हो, यह संपदा तुमने पा ली, तो यह प्रश्न तुम किसलिए करते ?
मैं तो नहीं करता यह प्रश्न । मैं तो किसी के पास नहीं जाता कहने कि समर्पण करने से मेरी स्वतंत्रता खो जायेगी। समर्पण करना ही किसलिए ? कोई प्रयोजन नहीं रहा है।
तुम पूछते हो। साफ है, तुम्हें स्वतंत्रता की कोई सुगंध नहीं मिली है अब तक, सिर्फ शब्द तुमने सीख लिया है। शब्द सीखने में क्या धरा है? तुम्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं है। जिन मित्र ने पूछा है, नये हैं। नाम है उनका 'दौलतराम खोजी ।' अभी खोज रहे हो। अभी मिला नहीं है। और दौलतराम भी नहीं हो। दौलत और राम ... जरा भी नहीं; खोजी हो, इतना सच है । अभी दौलत है नहीं । और राम के बिना दौलत होती कहां ? अभी तुम्हें भीतर के राम का पता नहीं है।
लेकिन डर है कि कहीं समर्पण किया तो खो न जाये। क्या खो जायेगा ? दौलत है नहीं दौलतराम ! सिर्फ अहंकार का धुआं है । खो जाने दो। इसके खोने से लाभ होगा। यह खो जाये तो तुम्हारे भीतर, इस धुएं के भीतर छिपी जो दौलत पड़ी है उसके दर्शन होने लगेंगे।
समर्पण तुम्हें स्वतंत्रता देगा अहंकार से । स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है ? हम किसी दूसरे से थोड़े ही बंधे हैं; अपनी ही अस्मिता से बंधे हैं। अपने ही अहंकार से बंधे हैं। किसी और ने हमें थोड़े ही बांधा है। अपना ही दंभ हमें बांधे हुए है। समर्पण का अर्थ है, दंभ किसी के चरणों मैं रख दो, जहां प्रेम जागा हो। किसी के पास अगर परमात्मा की थोड़ी-सी झलक मिली हो तो चूको मत मौका। रख दो वहीं चरणों में । यह बहाना अच्छा है। इस आदमी के बहाने अपना अहंकार रख दो। इस अहंकार के रखते ही तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह प्रकट हो जायेगा। यह आवरण उतार दिया। तुम नग्न हो जाओगे। उस नग्नता में तुम्हें अपनी आत्मा की पहली झलक मिलेगी।
और उस आत्मा का ही स्वभाव स्वतंत्रता है । अहंकार का स्वभाव स्वतंत्रता नहीं है । इसलिए समर्पण में तो आदमी आत्मवान बनता है, स्वतंत्र बनता है। समर्पण से किसी की स्वतंत्रता थोड़े ही खोती है । – एक बात ।
दूसरी बात : जो स्वतंत्रता समर्पण से खो जाये वह दो कौड़ी की है। वह बचाने योग्य ही नहीं है । जो स्वतंत्रता समर्पण करने पर भी बचे वही बचाने योग्य है। इस बात को समझना ।
स्वतंत्रता कोई ऐसी कमजोर, लचर चीज थोड़े ही है कि तुमने समर्पण किया, किसी के पैर छू लिये और गई ! इतनी सस्ती चीज को बचाकर भी क्या करोगे ? जो पैर छूने से चली जाये, जो कहीं सिर झुकाने से चली जाये, इसको बचाकर भी क्या करोगे ? इसमें कुछ मूल्य भी नहीं है। यह बड़ी
घन बरसे
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