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________________ बोधिधर्म बड़ा जंगली ढंग का आदमी था। देख ले जोर से तो तुम्हारे प्राण कंप जायें, घबड़ा जाओ । तलवार धार की तरह आदमी था । कहते हैं, कभी जोर से चीख देता था तो लोगों के विचार बंद हो जाते थे। उसका हुंकार लोगों को ध्यान लगवा देता था । एक क्षण को विचार-श्रृंखला टूट जाती थी। इस आदमी के पास तीन बजे रात आना ठीक है? और फिर यह आदमी दुबारा - यह भी अजीब बात कह रहा है, अहंकार साथ ले आना । और जब वह सीढ़ियां उतरकर जाने लगा सम्राट तो फिर डंडा ठोंककर बोधिधर्म ने कहा, देख भूलना मत। ठीक तीन बजे आ जाना। और अहंकार को साथ घर मत रख आना, क्योंकि मैं उसे खतम ही कर दूंगा आज । ले आना, वह डरने लगा और रात सो नहीं सका । जाऊं, न जाऊं? यह जाने के जैसी बात है कि नहीं ? लेकिन आकर्षण भी पकड़ने लगा। इस आदमी की आंखों में बल भी कुछ था । इस आदमी की मौजूदगी में कुछ आकर्षण भी था। कोई प्रबल आकर्षण था । नहीं रोक सका। बहुत समझाया अपने को कि जाना ठीक नहीं, लेकिन खिंचा चला गया। तीन बजे पहुंच गया। पहली बात जो बोधिधर्म ने पूछी वह यही, अहंकार ले आया? तो सम्राट ने कहा, आप भी कै बातें करते हैं! अहंकार कोई चीज तो नहीं है कि ले आऊं । यह तो मेरे भीतर है। उसने कहा, चलो इतना तो पक्का हुआ, भीतर है; बाहर तो नहीं है ! तो आधी दुनिया तो साफ हो गई। आधा काम तो हो चुका। बाहर नहीं है, भीतर है। उसने कहा, भीतर है। 'आंख बंद कर । बैठ जा सामने। और खोज भीतर, कहां है । और मैं डंडा लिये बैठा हूं तेरे सामने । जैसे ही तुझे मिले, इशारा कर देना कि पकड़ लिया। वहीं खतम कर दूंगा।' वह सम्राट बहुत घबड़ाने लगा। तीन बजे रात अंधेरे उस मठ में । और यह आदमी डंडा लिये बैठा है और पागल मालूम होता है। अब भागने का भी उपाय नहीं है । और खुद ही कह फंसा कि बाहर नहीं, भीतर है। अब इंकार भी नहीं कर सकता। आंख बंद करके भीतर देखने लगा । भीतर जितना खोजा उतना पाया कि मिलता नहीं। जितना खोजा उतना ही पाया, मिलता नहीं। सूरज उगने लगा, तीन घंटे बीत गये । और उसके चेहरे पर अपूर्व आभा छा गई। बोधिधर्म ने उसे हिलाया और उसने कहा कि अब उठ । मुझे दूसरे काम भी करने हैं। मिला कि नहीं? सम्राट वू उसके चरणों में झुक गया और कहा कि आपने मिटा दिया। मैं धन्यभागी कि आपके चरणों में आ गया। बहुत खोजा । खोजने से एक बात समझ में आ गई, न बाहर है न भीतर है; है ही नहीं। सिर्फ भ्रांति है, कल्पना है। मान रखा है। यह मैं सिर्फ एक मान्यता है। यह मैं ही संसार है। यह मैं का बीज ही फैलकर संसार बनता है । यह मैं गिर जाये, यह कल्पना गिर जाए - विहाय शुद्धबोधस्य; इसके छूट जाते ही शुद्ध बोधि, संबोधि का जन्म हो जाता है। और तब न कुछ करने को बचता, न कुछ न करने को । कर्ता ही नहीं बचता । गया तो कर्ता गया । और उस कर्ताशून्यता में प्रभु तुम्हारे भीतर बहता । तुम उपकरण हो जाते - निमित्तमात्र । बांस की पोली बांसुरी। वेणु बन जाते। वेणु बनो। समर्पण करो। कुछ और छोड़ना नहीं है, इस मैं की कल्पना को विसर्जित करो । 406 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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