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________________ T ऐसे झूठों से कुछ सार नहीं है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी अगर तुम जैसा आदमी रहा होगा तो फिर कभी एकनाथ के पास न गया होगा । फिर उसने कहा, अब झंझट मिट गई। यह आदमी धोखेबाज है। उसने यही समझा होगा कि इसने धोखा किया, झूठ बोला। संतपुरुष कहीं झूठ बोलते हैं? उसने यह समझा होगा। तत्वज्ञ का अर्थ होता है, वही समझो जो समझाया जा रहा है। वही देखो, जो दिखाई पड़ रहा है। बीच में अपने को मत डालो। इतनी छोटी-सी बात है : मोक्ष और भोग दोनों में निराकांक्षी । सदा और सर्वत्र रोगरहित — इतनी कुंजी है । 'महत्तत्व आदि जो द्वैत जगत है और जो नाममात्र को ही भिन्न है, उसका त्याग कर देने के बाद शुद्ध बोधवाले का क्या कर्तव्य शेष रह जाता है !' महदादि जगद्वैतं नाममात्रविजृम्भितम् । विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते ।। यह जो चारों तरफ फैला हुआ जगत है द्वंद्व का, द्वैत का, दुई का, अनेकत्व का; यह जो चारों तरफ अनेक-अनेक रूप फैले हुए हैं, ये नाममात्र को ही भिन्न हैं । जैसे सोने से ही कोई बहुत गहने बना ले, वे नाममात्र को ही भिन्न हैं। सबके भीतर सोना है। ऐसे ही यह जो सारा इतना विराट जगत फैला हुआ है, यह सब नाममात्र को ही भिन्न है, रूपमात्र में ही भिन्न है। नाम-रूप का भेद है, मौलिक रूप से भिन्न नहीं है। विज्ञान भी इसकी गवाही देता है। विज्ञान कहता है, सारा अस्तित्व बस विद्युतकणों से बना है; एक से ही बना है । अष्टावक्र का सूत्र कह रहा है: महदादि जगद्वैतं नाममात्र विजृम्भितम् । बस नाममात्र का भेद है इस जगत की चीजों में, कुछ बहुत भेद नहीं है । सब चीजें एक ही तत्व की विभिन्न विभिन्न मात्राओं से बनी हैं। इसलिए ऐसा जानकर, ऐसा समझकर व्यक्ति इन रूपों के और नामों के मोह में नहीं पड़ता है; कल्पना के जाल में नहीं उलझता है। कल्पना का त्याग कर देने से... । विहाय शुद्धबोधस्य । - इस जगत में तुम्हारी कल्पना जो छिटकी-छिटकी फिर रही है – इस स्त्री को पा लूं कि उस स्त्री को पा लूं, कि इस धन को पा लूं कि उस पद को पा लूं, यह पुरुष मिल जाये। यह जो तुम्हारी कल्पना छिटकी - छिटकी फिर रही है। विहाय शुद्धबोधस्य। इस कल्पना के त्याग मात्र से शुद्ध बुद्ध का तुम्हारे भीतर जन्म हो जाता है। शुद्ध बोध पैदा होता है । किं कृत्यमवशिष्यते । और फिर न तो कुछ करने को रह जाता, न न करने को रह जाता। फिर कोई कर्तव्य नहीं बचता । फिर तो कर्ता परमात्मा हो गया, तुम्हारा क्या कर्तव्य है ? कल्पना के कारण, मात्र कल्पना के कारण तुम उलझे हो । संसार ने तुम्हें नहीं बांधा है, तुम्हारी कल्पना ने बांधा है। 404 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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