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________________ कोई मूल्य है। जबरदस्ती घटा ली, वह कृत्रिम है; वे कागज के फूल हैं, असली फूल नहीं। उन पर भरोसा मत करना। वे काम नहीं आयेंगे। 'इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन है? तत्वज्ञ महाशय भोग और मोक्ष दोनों में निराकांक्षी सदा और सर्वत्र रागरहित है।' बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्वो महाशयः। भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः।। अष्टावक्र इतना कहे और अब कहते हैं कि इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन? इसका मजा समझो। इतना कहे हैं, कहते जा रहे हैं, और कहते हैं कि इतना बहुत कहने से क्या प्रयोजन। __उसका कारण है। कितना ही कहो, कम ही रहता है। कितना ही कहो, जो कहना था, अनकहा ही रह जाता है। कितना ही गुनगुनाओ, जो गीत गाना था, गाया ही नहीं जा सकता। लाओत्सु ने कहा है, जो कहा जा सके वह सत्य नहीं। जो अनकहा रह जाये वही। इतने दूर तक महागीता के ये अदभुत वचन कहने के बाद-और ऐसे वचन कभी नहीं कहे गये हैं-अष्टावक्र कहते हैं, इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन? बहुनात्र किमुक्तेन। बात छोटी है, बहुत कहने से क्या सार? संक्षिप्त में कही जा सकती है। इतनी-सी बात है : ज्ञाततत्वा महाशयः भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः। जो समझ सकेः तत्वज्ञ, महाशय; जिसका आशय विराट हो और जो तत्व को समझ सके-तो जरा-सी बात है। भोग और मोक्ष, दोनों में जो निष्कांक्षी हो गया वही पा लिया सब। वही संन्यासी है। . तत्वज्ञ कहते हैं उसे, जो अपने विचारों को एक तरफ रखकर समझने की कोशिश करे। तत्वज्ञ बहुत मुश्किल हैं खोजना और महाशय बहुत मुश्किल हैं। - अब यहां तुम बैठे हो; इसमें महाशय बहुत मुश्किल है खोजना। कोई हिंदू है, वह महाशय न रहा। उसका आशय क्षुद्र हो गया। कोई मुसलमान है, वह महाशय न रहा। उसका आशय क्षुद्र हो गया। आशय पर सीमा बंध गई तो महाशय न रहे, क्षुद्राशय हो गये। ___ संप्रदाय क्षुद्र बना देता है। किसी शास्त्र में मान्यता है, क्षुद्र हो गये। महाशय का अर्थ है : जिसको न कोई शास्त्र बांधता, न कोई संप्रदाय बांधता, न कोई धारणा बांधती। जो मुक्त है। जो कहता है ये सब किनारे रखकर सुनने को राजी हूं। तब अष्टावक्र कहते हैं, श्रवणमात्रेण। फिर तो सुनने से ही हो जायेगा। कुछ करना न पड़ेगा। अगर तुम महाशय होने की हिम्मत रखो-तम्हारे पक्षपात. तम्हारी जड़ हो गई धारणायें, तुम्हारे संस्कार एक तरफ रख दो तो तुम महाशय हो गये; आकाश जैसे हो गये। विचार हटा दिये, बादल हट गये, खुला आकाश प्रगट हो गया। उस खुले आकाश में किसी सदगुरु की जरा-सी चोट तुम्हें सदा के लिए जगा दे। लेकिन तुम विचारों की पों से घिरे होकर सुनते हो। चोट तुम तक पहुंचती ही नहीं। या पहुंचती है तो कुछ का कुछ अर्थ हो जाता है; अनर्थ हो जाता है। यहां कहा कुछ जाता है, तुम समझ कुछ लेते हो। ___ मैंने सुना है, महाराष्ट्र के एक अपूर्व संत हुए एकनाथ। एक आदमी उनके पास बार-बार आता था। खोजी था। कहता कि प्रभु, कुछ ज्ञान दें। हजार बार उसे समझा चुके थे मगर वह कुछ उसकी मन का निस्तरण 401
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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