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हैं ज्ञानी हो जाने के बाद, कृष्ण भी करते हैं, मोहम्मद भी करते हैं, जीसस भी करते हैं। कर्म नहीं रुकता। हां, कर्म का गुण बदल जाता है। अब कर्ता नहीं रहा पीछे ।
'वही आत्मज्ञानी धन्य है जो मन का निस्तरण कर गया है और जो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सब भावों में एकरस है।'
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः ।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्निस्तर्षमानसः।।
निस्तर्षमानसः – जो मन के पार हो गया है वही धन्य है । जो निस्तरण कर गया है।
हम तो शरीर से भी पार नहीं होते। भूख लगती है तो हम कहते हैं, मुझे भूख लगी हैं। तुम भलीभांति जानते हो कि भूख शरीर को लगी है, तुम्हें नहीं लगी। तुम तो जाननेवाले हो, जो जान रहा है कि शरीर को भूख लगी है। सिर में दर्द होता है, तुम कहते हो मुझे पीड़ा हो रही है। तुम भलीभांति जानते हो, पीड़ा तुम्हें हो नहीं सकती। तुम तो जाननेवाले हो, पीड़ा तो शरीर को हो रही है। किसी ने गाली दी, क्षुब्ध हुए । क्षोभ तो मन में होता है, तुम्हें नहीं होता। तुम तो जाननेवाले हो, मन के पीछे खड़े। साक्षी हो; जो देख रहा है कि मन क्षुब्ध हुआ । किसी ने गाली का पत्थर फेंका, मन के सागर
लहरें उठ गईं। मन की झील तरंगित हो गई। तुम तो देख रहे । जैसे किनारे पर बैठा कोई देखता ह कि किसी ने पत्थर फेंका झील में, और झील में लहरें उठ गईं। ऐसा तुम पीछे बैठे किनारे पर देख रहे; किसी ने गाली फेंकी और मन में तरंगें उठ गईं।
तुम नहीं हो। तुम देह, न तुम मन । तुम दोनों के पार हो— कुछ अपरिभाष्य । लेकिन एक बात सुनिश्चित है, तुम जागृति हो, बोध हो, होश हो। इस बोध को पा लेने से ही तो किसी को हम बुद्धपुरुष कहते हैं। इस साक्षीभाव को उपलब्ध हो जाने का ही नाम निस्तरण है।
निस्तर्षमानसः।
'वही आत्मज्ञानी धन्य है जो मन का निस्तरण कर गया । '
जो मन से तैरकर आगे निकल गया या मन के पीछे निकल गया । मन से पार हो गया। मन की धार में जो नहीं खड़ा है वही ज्ञानी धन्य है ।
'ऐसा ज्ञानी देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सब भावों एकरस
में
'है ।'
सुख आये, दुख आये, जो मन के पार हो गया है उसे न सुख आता न दुख आता। दोनों मन में घटते हैं। न सुख से सुखी होता, न दुख से दुखी होता। कोई फूल फेंके कि गालियां बरसाये, सफलता मिले कि विफलता, कांटे चुभें कि फूलों की सेज कोई बिछाये, ज्ञानी दोनों अवस्थाओं में समरस।
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एक बुलबुल का जला कल आशियाना जब चमन में फूल मुस्काते रहे छलका न पानी तक नयन में सब मगन अपने भजन में था किसी को दुख न कोई सिर्फ कुछ तिनके पड़े सिर धुन रहे थे उस हवन में हंस पड़ा मैं देख यह तो एक झरता पात बोला हो मुखर या मूक, हाहाकार सबका है बराबर
अष्टावक्र: महागीता भाग-5