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मुनि का अर्थ होता है, जो अपनी तरफ से बोलता भी नहीं। और तो बात और, जो अपनी तरफ से हां-ना भी नहीं कहता। जब तुम किसी ज्ञानी से कुछ पूछते हो तो ज्ञानी परमात्मा से पूछता है। तुम्हें शायद यह दिखाई भी न पड़े क्योंकि यह अगोचर है। यह दृश्य तो नहीं है। तुम ज्ञानी से पूछते हो, ज्ञानी परमात्मा के चरणों में तुम्हारे प्रश्न को निवेदन कर देता है । फिर जो उत्तर बहता है, बहता है। यह उत्तर ज्ञानी से आता है लेकिन ज्ञानी का नहीं है। वाणी ज्ञानी से फूटती है लेकिन ज्ञानी की
नहीं है।
मुन का अर्थ होता है, जो अपनी तरफ से तो शून्यवत हो गया । और जब कोई शून्यवत हो जाता है, परम मौन हो जाता है, तभी तो परमात्मा बोल पाता है। जब तक तुम्हारे भीतर शोरगुल है, जब तक तुम्हारी ही तरंगें तुम्हें भरे हुए हैं तब तक उसकी छोटी-छोटी, धीमी-धीमी फुसफुसाहट सुनाई न पड़ेगी। जब तक तुम पागल हो अपने विचारों से तब तक उसके मधुर स्वर तुमसे बह न सकेंगे। तुम उनके लिए मार्ग न बन सकोगे।
सर्वारंभेषु निष्कामो यः चरेत् बालवन्मुनिः ।
और बावत इस शब्द को भी खयाल में ले लेना ।
'जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है और बालवत व्यवहार करता है । '
बालक के क्या लक्षण हैं? एक: कि बालक अज्ञानी है। ज्ञानी भी अज्ञानी है। तुम बहुत चौंकोगे। क्योंकि ज्ञानी और अज्ञानी तो विरोधाभास मालूम पड़ेगा। लेकिन मैं तुम्हें कहता हूं, ज्ञानी अज्ञानी है। ज्ञानी कुछ जानता नहीं। जितना परमात्मा जना देता है, बस ठीक। ज्ञानी अपनी तरफ से नहीं जानता । ज्ञानी पंडित नहीं है। पंडित कभी ज्ञानी नहीं हो पाता। पापी भी पहुंच जायें, पंडित कभी नहीं पहुंचते । पंडित तो भटकते रह जाते हैं। पंडित में तो एक दंभ होता है कि मैं जानता हूं। ज्ञानी को इतना ही बोध होता है कि मैं क्या जानता हूं ! मैं हूं ही नहीं, जानूंगा कैसे ? जानना कहां संभव है ?
ज्ञानी बालवत है। उसने अपने अज्ञान को स्वीकार कर लिया है, कि तुम जनाओगे उतना ही जान लूंगा। तुम जितना दिखाओगे उतना ही देख लूंगा। मेरे पास न तो अपनी आंख है, न अपने कान हैं, न मेरे पास अपनी प्रतिभा है। मेरे पास अपना कुछ भी नहीं । तुम ही मेरे धन हो। मैं तो हूं ही नहीं। मैं तोसिफर, मैं तो एक शून्य । तुम जितने इस शून्य से प्रगट हो जाओगे उतना ही मैं प्रगट होने लगूंगा । लेकिन तुम ही प्रगट हो रहे हो ।
सुकरात ने कहा है कि जिस दिन मैंने जाना कि मैं कुछ भी नहीं जानता उसी दिन ज्ञान की पहली किरण उतरी। उपनिषद कहते हैं, जो कहे जानता हूं, जान लेना नहीं जानता । लाओत्सु ने कहा है, जानने का दंभ केवल उन्हीं में होता है जिन्हें अभी कुछ भी पता नहीं चला है । जाननेवालों में जानने का खयाल ही तिरोहित हो जाता है । जाननेवालों को 'जानता हूं,' ऐसा बोध ही नहीं उठता। यह तो अज्ञान का ही हिस्सा है।
अब तुम्हें खयाल में आ सकती है बात। अज्ञानी को ही यह बोध उठता है कि मैं जानता हूं । क्योंकि मैं अज्ञान में ही सघनीभूत होता है। ज्ञानी को बोध नहीं होता कि मैं जानता हूं। और ज्ञानी ही जानता है, अज्ञानी जानता नहीं।
विरोधाभासी है यह, लेकिन जीवन बड़ा विरोधाभासी है ही। यहां जिनको अकड़ है जानने की
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5