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कहते हैं। उसका कारण है। सदगुरु व्यक्ति नहीं है, सदगुरु हो गया अव्यक्ति। उसने अपने को तो पोंछकर मिटा डाला। उसने अपनी अस्मिता हटा दी। उसने अपना अहंकार गिरा दिया। अब उसके भीतर से जो काम कर रहा है वह परमात्मा है। जब सदगुरु तुम्हारा हाथ पकड़ता है तो परमात्मा ने ही तुम्हारा हाथ पकड़ा।
अगर तुम्हें ऐसा दिखाई न पड़े तो सदगुरु से तुम्हारा अभी संबंध नहीं बना। तुम अभी शिष्य नहीं हुए। अभी बात शुरू ही नहीं हुई। अभी बीज बोया नहीं गया, फसल काटने की मत सोचने लगना। बीज ही नहीं बोया गया है।
जब कभी गिरने लगा मन खाइयों में कौन पीछे से अचानक थाम लेता?
सूखते जब जिंदगी के स्रोत सारे धार से कटते चले जाते किनारे कौन दृढ़ विश्वास इन कठिनाइयों में जिंदगी को हर सुबह हर शाम देता?
जब निगाहों में सिमट आते अंधेरे जिंदगी बिखरे समय के खा थपेड़े कौन धुंधलायी हुई परछाइयों में जिंदगी के कण समेट तमाम लेता?
जो जमाने से विभाजित हो न पाई रह गई अवशेष वह जीवन इकाई कौन फिर संयोग बन तनहाइयों में
जिंदगी को नित नये आयाम देता? जब तुम्हें किसी व्यक्ति में अव्यक्ति का दर्शन हो जाये, जब किसी व्यक्ति में तुम्हें शून्य का आभास हो जाये, जब किसी आकृति में तुम्हें निराकार प्रतीत होने लगे, जब किसी की मौजूदगी तुम्हारे लिए परमात्मा की सघन मौजूदगी बन जाये तो सदगुरु से मिलना हुआ।
सदगुरु को खोजना पड़ता है, मनोवैज्ञानिक को खरीदना पड़ता। मनोवैज्ञानिक धन से मिल जाये, सदगुरु तो मन को चढ़ाने से मिलता है। दोनों अलग बातें हैं।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5