________________
मनोवैज्ञानिक के प्रेम में पड़ने लगे तो मनोवैज्ञानिक इसे रोके । क्योंकि अगर मरीज प्रेम में पड़ गया और मनोवैज्ञानिक भी मरीज के प्रेम में पड़ गया तो कौन किसकी सहायता करेगा? कैसे सहायता करेगा? फिर तो सहायता असंभव हो जायेगी ।
देखा कभी? एक बड़ा सर्जन, उसकी पत्नी बीमार पड़ जाये, हजारों आपरेशन किये हों उसने, अपनी पत्नी का आपरेशन नहीं कर पाता। किसी दूसरे सर्जन को बुलाता है; चाहे नंबर दो सर्जन को बुलाये। नंबर एक सर्जन नंबर दो सर्जन को बुलाकर आपरेशन करवाता है, क्योंकि खुद डरता है । प्रेम इतना है कि हाथ कंप जायेंगे, घबड़ाहट होगी, चिंता पकड़ेगी कि सफल हो पाऊंगा कि असफल हो जाऊंगा। पत्नी है, कहीं मर न जाये ।
इतनी चिंता से घिरा हुआ निश्चित न रहेगा। सर्जन सर्जन कैसे हो पायेगा ?
नहीं, दूरी चाहिए। सर्जन चाहिए बिलकुल निरपेक्ष । जिसे कुछ प्रयोजन ही नहीं । तुम जिंदा हो कि मुर्दा इससे भी प्रयोजन नहीं । तुम बचोगे कि नहीं बचोगे इसमें भी कोई आग्रह, लगाव नहीं । मर गये तो मर गये। बचे तो बचे। वह तो सिर्फ अपना शिल्प जानता है, अपनी कला जानता है। वह अपनी कला का उपयोग कर लेगा ।
मैंने सुना है, एक सर्जन किसी के पेट का आपरेशन कर रहा था। और उसने अपने सहयोगी को मरीज के सिर के पास खड़ा किया था कि कुछ विशेष घटे तो खबर देना । कोई दस मिनट बाद सिर के पास खड़े हुए आदमी ने कहा, महानुभाव, रुकिये। उसने कहा, बीच में मत टोको । तो वह चुप रहा । फिर उसने कहा कि लेकिन सुनिये तो मैं क्या कहना चाहता हूं। मेरी तरफ का जो हिस्सा है वह मर चुका है। वह सिर की तरफ का जो हिस्सा है, उसके सहयोगी ने कहा, वह मर चुका है। और आपरेशन आप किये ही चले जा रहे हैं। यह आदमी अब जिंदा नहीं है, अब आप बेकार मेहनत कर रहे हैं।
सर्जन को उसका भी पता नहीं होना चाहिए कि जिंदा भी है आदमी कि मुर्दा। वह अपनी कुशलता से अपना काम किये जा रहा है। उसे जरा भी डांवांडोल नहीं होना चाहिए ।
तो फ्रायड ने कहा है कि मरीज और मनोचिकित्सक के बीच किसी तरह का रागात्मक संबंध न बने, अन्यथा मुश्किल हो जायेगी । फिर सहयोग देना मुश्किल हो जायेगा । दूरी रहे ।
ठीक उल्टी बात सदगुरु के साथ है। अगर रागात्मक संबंध न बने तो इतनी दूरी रहेगी कि कुछ हो ही न पायेगा। रागात्मक संबंध बने तो ही कुछ हो पायेगा । सदगुरु के पीछे तुम पागल होकर प्रेम में पड़े तो ही कुछ हो पायेगा, मतवाले हो जाओ तो ही कुछ हो पायेगा। यह संबंध प्रेम का है। तुम्हारे हृदय में बस जाये तो कुछ हो सकता है।
वह गंध मेरे मन बस गई रे
360
एक बन जूही एक बन बेला अगणित गंधों का यह मेला पाकर मुझको निपट अकेला इन प्राणों को कस गई रे
अष्टावक्र: महागीता भाग-5