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________________ पहला प्रश्नः पूर्वीय मनीषा सदगुरुओं को मनोवैज्ञानिक का संबोधन क्यों नहीं देती? क्या सदगुरु मनोवैज्ञानिक से किन्हीं अर्थों में बिलकुल भिन्न है? कृपा करके समझाइये। नोवैज्ञानिक मनस्विद नहीं है। मन के संबंध में जानता है, मन को नहीं जानता। मन के संबंध में जानना एक बात है, मन को जानना बिलकुल दूसरी। मन के संबंध में जानना तो मन से ही हो जाता है। मन को जानना मन के पार गये बिना नहीं होता। साक्षी जानता है मन को। मन को जानने के लिए मन से भिन्न होना पड़ेगा, पार होना पड़ेगा। मन से ऊपर उठना पड़ेगा। मन से जो घिरे हैं वे मन को न जान पायेंगे। जिन्होंने ऐसा जाना कि हम मन ही हैं वे तो मन को कैसे जान पायेंगे? जिसे भी हम जानते हैं उससे थोड़ी दूरी चाहिए, फासला चाहिए, तभी तो परिप्रेक्ष्य पैदा होता है। मैं तुम्हें देख रहा हूं क्योंकि तुम दूर हो। तुम मुझे सुन रहे हो क्योंकि मैं दूर हूं। - मन से जो दूरी पैदा करने के उपाय हैं वे ही ध्यान हैं। मन को भी दृश्य बना लेने की जो प्रक्रियायें हैं वे ही ध्यान हैं। जहां मन भी तुम्हें अपने से अलग दिखाई पड़ने लगता है-देह भी, मन भी, और तुम सबके पार खड़े हो जाते हो।। , मनस्विद नहीं है मनोवैज्ञानिक। मन का ज्ञाता नहीं है। मन के संबंध में जानकारी है उसे। जानकारी उधार है। अपने मन के संबंध में उसे कुछ भी पता नहीं है। मन के संबंध में दूसरों ने जो कहा है उसका संग्रह किया है उसने। मन के संबंध में मनुष्य के व्यवहार को जांचकर, परखकर जो अनुमान किये जा सकते हैं, उन अनुमानों पर थिर है वह। मनोवैज्ञानिक तकनीशियन है। ___ इसलिए यह हो सकता है, अक्सर होता है कि मनोवैज्ञानिक जिन संबंधों में तुम्हें सलाह देता है उन्हीं संबंधों में स्वयं रुग्ण होता है। ___तुम जानकर चकित होओगे कि मनोवैज्ञानिक जितने पागल होते हैं उतना कोई और पागल नहीं होता। और मनोवैज्ञानिक का सारा काम यही है कि पागलों को स्वस्थ करे। ___ मनोवैज्ञानिक के धंधे में पागलपन दोगुना घटता है, साधारण धंधे की बजाय। प्रोफेसर भी पागल होते, इंजीनियर भी पागल होते, डाक्टर भी पागल होते, लेकिन मनोवैज्ञानिक दोगुने पागल होते। ऐसा होना तो नहीं चाहिए। मनोवैज्ञानिक तो बिलकुल पागल नहीं होना चाहिए। जिसने मन को जान लिया वह कैसे पागल होगा?
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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