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तुम उसे मंदिर में पाओगे नहीं। तुम उसके भीतर झांकोगे तो वह कहीं और है। ज्ञानी दूकान पर बैठा हुआ भी अपने भीतर बैठा है— सुखमास्ते । दूकान भी चल रही है। इन दोनों में कोई विरोध थोड़े ही है! दूकान के चलने में क्या विरोध है ?
आत्मवान को कोई विरोध नहीं है। अज्ञानी को विरोध है। अज्ञानी कहता है, दूकान चलती है तो मैं तो अपने को भूल ही जाता हूं। दूकान ही चलती है, मैं तो भूल जाता हूं। तो मैं अब ऐसी जगह जाऊंगा जहां दूकान नहीं है, ताकि मैं अपने को याद कर सकूं। लेकिन यह अज्ञानी अज्ञान को तो छोड़कर न जा सकेगा। अज्ञान तो साथ चला जायेगा।
ऐसा ही समझो कि जैसे फिल्म तुम देखने जाते हो तो पर्दे पर फिल्म दिखाई पड़ती है, लेकिन फिल्म पर्दे पर होती नहीं। फिल्म तो प्रोजेक्टर में होती है। वह पीछे छिपा है । जो आदमी संसार से भाग गया वह ऐसा आदमी है, जो पर्दे को छोड़कर प्रोजेक्टर लेकर भाग गया। प्रोजेक्टर साथ ही रखे हैं। अब पर्दा नहीं है तो देख नहीं सकता, यह बात सच है, मगर प्रोजेक्टर साथ है। कभी भी परदा मिल जायेगा, तत्क्षण काम शुरू हो जायेगा ।
तुम स्त्रियों से भाग जाओ तो परदे से भाग गये। कामवासना तो साथ है, वह प्रोजेक्टर है। किसी दिन स्त्री सामने आ जायेगी, बस... । और ध्यान रखना, अगर तुम भाग गये हो स्त्री से तो स्त्री इतनी मनमोहक हो जायेगी, जितनी कभी भी न थी । क्योंकि जितने तुम तड़फोगे भीतर-भीतर उतनी ही स्त्री सुंदर होती जायेगी । जितने तुम तड़फोगे उतनी ही साधारण स्त्री अप्सरा बनती जायेगी । जितने तुम तड़फोगे उतना ही सौंदर्य तुम उसमें आरोपित करने लगोगे |
भूखा आदमी रूखी-सूखी रोटी में भी बड़ा स्वाद लेता । भरे पेट सुस्वादु भोजन में भी कोई स्वाद नहीं मालूम होता। इसलिए तुम्हारे साधु-संन्यासी स्त्रियों को गाली देते रहते हैं। दो चीजों को गाली देते रहते हैं : कामिनी और कांचन । चीजों से बड़े परेशान हैं: स्त्री और धन । बस उनका एक ही राग है- बचो कामिनी से, बचो कांचन से। और उनका राग यह बता रहा है कि ये दो ही चीजें उनको सता रही हैं। धन सता रहा है और स्त्री सता रही है।
स्त्री और धन क्या सतायेंगे ! उनके भीतर वासना पड़ी है, वासना के बीज पड़े हैं। परिस्थिति तो छोड़कर भाग गये, मनस्थिति को कहां छोड़ोगे ? मन तो साथ ही चला जाता है।
'जो ज्ञानी स्वभाव से व्यवहार में भी सामान्य जन की तरह नहीं व्यवहार करता और महासरोवर की तरह क्लेशरहित है, वही शोभता है।'
अज्ञानी तो लड़ता ही रहता, उलझता ही रहता । कोई बाहर न हो उलझने को तो भीतर उलझन बना लेता, लेकिन बिना उलझे नहीं रह सकता ।
क्या-क्या हुआ है हमसे जुनूं में न पूछिये
उलझे कभी जमीं से कभी आसमां से हम
उलझता ही रहता, झगड़ता ही रहता। झगड़ा उसकी जीवन-शैली है। कोई बाहर न मिले तो वह भीतर निर्मित कर लेता है। कोई दूसरा न मिले लड़ने को तो अपने से लड़ने लगता है। लेकिन झगड़ा उसकी प्रकृति है। और अज्ञानी कहीं भी जाये, कुछ भी करे, कुछ भेद नहीं पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर से गिर पड़ा। सारा गांव चकित हुआ, क्योंकि गधा उसको लेकर
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5