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________________ घबड़ाते क्यों हो कारण बताने से? झगड़ा हुआ, कारण होगा। वे दोनों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। वह कहने लगा, अब तू ही बता दे। वह कहने लगा, अब तू बता दे। कारण ही ऐसा था कि बताने में संकोच लगने लगा। फिर बताना ही पड़ा। जब मजिस्ट्रेट ने जोर-जबर्दस्ती की कि अगर न बताया तो दोनों को सजा दे दूंगा। तो बताना पड़ा। कारण ऐसा था कि बताने जैसा नहीं था। दोनों नदी के किनारे बैठे थे। दोनों पुराने मित्र। और एक ने कहा कि मैं भैंस खरीदने की सोच रहा हूं। दूसरे ने कहा कि देख, भैंस तू खरीदना ही मत क्योंकि मैं खेत खरीदने की सोच रहा हूं, एक बगीचा खरीद रहा हूं। अब कभी यह भैंस घुस गई मेरे बगीचे में, झगड़ा-झंझट हो जायेगा। पुरानी दोस्ती यह भैंस को खरीदकर दांव पर मत लगा देना। और देख, मैं तेरे को अभी कहे देता हूं कि अगर मेरे बगीचे में भैंस घुस गई तो मुझसे बुरा कोई नहीं। उस आदमी ने कहा, अरे हद हो गई! तूने समझा क्या है ? तेरे बगीचे के पीछे हम भैंस न खरीदें? तू मत खरीद बगीचा, अगर इतनी बगीचे की रक्षा करनी है। भैंस तो खरीदी जायेगी, खरीद ली गई। और कर ले जो तुझे करना हो। ___ बात इतनी बढ़ गई कि उस आदमी ने वहीं रेत पर एक हाथ से लकीर खींच दी और कहा, यह रहा मेरा बगीचा। और घुसाकर देख भैंस। और दूसरे आदमी ने अपनी उंगली से भैंस घुसाकर बता दी। सिर खुल गये। ____ उन्होंने कहा, मत पूछे कारण। जो दंड देना हो दे दें। न अभी मैंने बगीचा खरीदा है, न इसने अभी भैंस खरीदी है। और हम पुराने दोस्त हैं। अब जो हो गया सो हो गया। दोनों पकड़कर ले आये गये अदालत में। तुमने भी कई दफे ऐसे बगीचों के पीछे झंझटें खड़ी कर लीं, जो अभी खरीदे नहीं गये। तुम जरा अपने मन की जांच-पड़ताल करना, तुम्हें हजार उदाहरण मिल जायेंगे। बैठे-बैठे न मालूम क्या-क्या विचार उठ आते हैं। और जब कोई विचार उठता है तो तुम क्षण भर को तो भूल ही जाते हो कि यह विचार है। क्षण भर तो मा छा जाती है. और विचार सच मालम होने लगता है। वह जो विचार का सच मालूम होना है, वही संसार है। एक बार विचारों से तुम मुक्त हो गये तो संसार से मुक्त हो गये। निर्विचार होना संन्यास है। और कोई उपाय संन्यासी होने का नहीं है। कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः। 'और ज्ञानी सब कर्मों को करता हुआ भी शांत चित्तवाला होता है।' कर्म नहीं बाधा डालते। ज्ञानी भी उठता, बैठता, चलता, बोलता, काम करता, लेकिन भीतर उसके कोई संक्षोभ नहीं है। वह एक बात में कुशल हो गया है, उसकी कुशलता आंतरिक है। भीतर विचार नहीं उठते। भीतर वह बिलकुल मौन में है, शून्यवत है। चलता है तो शून्य चलता है। बैठता है तो शून्य बैठता है। करता है, तो शून्य करता है। और जो व्यक्ति अपने भीतर शून्य हो गया है वही ज्ञान को उपलब्ध हुआ है। उसी को ज्ञानी कहते हैं। जिसने शून्य के साथ अपनी भांवर डाल ली वही ज्ञानी है। क्योंकि जो शून्य हो गया उसी से पूर्ण प्रगट होने लगता है। जो अपने भीतर अहंकार से खाली । मृढ़ कौन, अमूढ़ कौन! 331
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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