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होता। मैं उनको देखता रहता । कोई ग्राहक दूकान पर आये तो वे उसको धीरे से इशारा कर देते कि आगे चला जा। और मुझसे कहते, किसी को बताना मत। मैं पूछता, बात क्या है? वे कहते, अभी कोई एक कड़ी उतर रही है। अभी यह ग्राहक कहां बीच में आ रहा है !
धीरे-धीरे सबको पता चल गया कि जब भी वे दूकान पर बैठते हैं तो कोई बिक्री होती ही नहीं । यह बात क्या है? कोई और बैठता है तो बिक्री होती है। फिर ग्राहक भी शिकायत करने लगे आकर कि यह मामला क्या है? किसको दूकान पर बिठाला हुआ है ? हम कुछ लेने आते हैं, और इशारा करते हैं कि आगे । जैसे हम कोई मांगने आये हों । ग्राहक को लोग बुलाते हैं कि आइये, विराजिये, बैठिये। पान-सुपारी देते। ये हाथ से इशारा करते हैं और कहते आवाज भी मत करो, जाओ। यह बात क्या है ?
चुपचाप निकल
अब जो कवि है उसके लिए दूकान बड़ी अड़चन है। अब यहां कोई कड़ी उतर रही है। अब कड़ियों को कोई पता थोड़े ही है कि अभी ग्राहक आ रहा है! कड़ी जब उतर रही, जब उतर रही। अब उनको कुछ गुनगुनाहट आ रही और ये सज्जन आ गये। अब ये उनको जमीन पर खींच रहे हैं। एक साड़ी खरीदना है, कपड़ा खरीदना है, यह करना है, वह करना है। अब उनको दाम बताओ... .. इतने में तो सब खो जायेगा ।
अब तुम संन्यस्त हो गये तो दूकान पर बैठे-बैठे ध्यान लग जायेगा। काम करते-करते भीतर की तल्लीनता पैदा होने लगेगी। तो बाहर की हालत सुधरेगी, यह तो है ही नहीं; थोड़ी बिगड़ भला जाये । यह तुम भीतर की तरफ मुड़ने लगे तो बाहर तो हालत थोड़ी डांवांडोल होनेवाली है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, अगर ध्यान करेंगे तो सुख-सुविधा बढ़ेगी? कुछ पक्का नहीं है। भीतर तो कुछ होगा लेकिन बाहर का मैं कुछ कह सकता नहीं। बढ़े, घट जाये, न बढ़े, जैसी है वैसी रहे, हजार संभावनायें हैं। कोई वचन देकर मैं तुम्हें आश्वासन नहीं दे सकता। हां, भीतर रस उमगेगा। भीतर खूब वर्षा होगी। बाहर का मैं कुछ कह सकता नहीं ।
वे बड़े परेशान होते हैं। वे कहते हैं, महर्षि महेश योगी तो कहते हैं कि जो ध्यान करेगा, खूब सुख-संपत्ति भी बढ़ती है। तो मैंने कहा, तुम्हें सुख-संपत्ति बढ़ानी हो तो तुम कहीं और किसी को खोजो। मैं तुम्हें यह वायदा नहीं कर सकता। क्योंकि यह वायदा बुनियादी रूप से झूठ है।
और अगर कोई ध्यान ऐसा हो जो बाहर की सुख-संपत्ति बढ़ाता हो तो वह ध्यान नहीं है। या तो यह वायदा झूठ है या वह ध्यान ध्यान नहीं है। दो में से कुछ एक ही होगा। क्योंकि जिसका अंतस-जगत की तरफ प्रवाह होना शुरू हो गया, बाहर के जगत में थोड़ी-बहुत अड़चन आयेगी ।
तुम कहते हो कि बाहर खूब तृप्ति है, अब हर बात की तृप्ति है। जिसने पूछा है, मैं जानता हूं उनके पास कुछ ज्यादा नहीं, लेकिन अब बाहर तृप्ति है। कल तक भीतर तृप्ति थी, आज बाहर तृप्ति है। भीतर अतृप्ति है।
तुम समझो। अतृप्ति के इस स्वभाव को समझो। जैसे बाहर से इसको छोड़ दिया ऐसे ही भीतर से भी छोड़ दो। इस सिक्के को ही फेंको। यह तृप्ति अतृप्ति की भाषा ही जाने दो। तुम तो इस क्षण मगन हो रहो । तृप्ति-अतृप्ति का तो अर्थ ही यह है कि कल... कल और ज्यादा होगा तब।
मैं तुमसे कहता हूं अभी अभी, कल कभी नहीं। कल कभी आता ही नहीं । या तो अभी, या कभी
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5