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अपने में डूब गये। यह मित्र केवल बहाना है। यह केवल निमित्त हो गया। ___ जिस घड़ी में भी तुम अपने से जुड़ जाते, सुख बरस जाता। जिस घड़ी तुम अपने से टूट जाते, दुख बरस जाता।
इस सत्य को धीरे-धीरे पहचानने लगता है जब कोई, तो धीरे-धीरे निमित्त को त्यागने लगता है। फिर बैठ जाता है अकेला। इसी का नाम ध्यान है। फिर वह यह फिक्र नहीं करता कि मित्र आये तब सुखी होंगे। ऐसे रोज मित्र आते नहीं। और रोज आने लगें तो सुख भी न आयेगा; वे कभी-कभी आते हैं तो ही आता है। ऐसे घर में ही ठहर जायें तो फिर बिलकुल न आयेगा।।
फिर ऐसा व्यक्ति इसकी चिंता नहीं करता कि चांद जब निकलेगा तब सुखी होंगे; कि जब बसंत आयेगा और फूल खिलेंगे तब सुखी होंगे। ऐसी भी क्या कंजूसी? जब सुख भीतर ही है तो धीरे-धीरे बिना निमित्त के व्यक्ति अपने को अपने से जोड़ने लगता है। इसी का नाम ध्यान। ऐसे बैठ जाता है शांत, अपने से जोड़ लेता है—बिना निमित्त के। निमित्तशून्यता में अपने से जोड़ लेता। __ और जब कभी एक बार भी बिना निमित्त के तुम अपने से जुड़ जाते हो, तो घटना घट गई। कुंजी मिल गई। अब तुम जानते हो, अब किसी पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। जब चाहो तब ताला खुलेगा। जब चाहो तब भीतर का द्वार उपलब्ध है। बीच बाजार में तुम आंख बंद करके खड़े हो सकते हो और डूब जा सकते हो अपने में।
फिर धीरे-धीरे आंख बंद करने की भी जरूरत नहीं रह जाती, क्योंकि वह भी निमित्त ही है। फिर आंख खुली रखे तुम अपने में डूब जाते हो। फिर तुम काम करते-करते भी डूब जाते हो। फिर ऐसा भी नहीं है कि पद्मासन में ही बैठना पड़े, कि पूजागृह में बैठना पड़े, कि मंदिर-मस्जिद में बैठना पड़े। फिर तुम बाजार में, खेत में, खलिहान में काम करते-करते भी अपने में डूब जाते हो।
धीरे-धीरे यह तुम्हारा इतना सहज भाव हो जाता कि इसमें बाहर आना, भीतर आना जरा भी अड़चन नहीं देता। एक घड़ी ऐसी आती कि तुम अपने भीतर के स्रोत में डूबे ही रहते हो। करते रहते हो काम, चलता रहता है बाजार, दुकान भी चलती है, ग्राहक से बात भी चलती, खेत-खलिहान भी चलता, गड्डा भी खोदते जमीन में, बीज भी बोते, फसल भी काटते, बात भी करते, चीत भी सुनते, सब चलता रहता है और तुम अपने में डूबे खड़े रहते हो। ऐसे रसलीन जो हो गया वही सिद्ध-पुरुष है। ____ “स्वाभाविक रूप से जो शून्यचित्त है और सहज रूप से कर्म करता है, उस धीरपुरुष के सामान्य जन की तरह न मान है न अपमान।'
कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा। इति चिंतानरोधी यः कर्वन्नपि करोति न।।
'यह कर्म शरीर से किया गया है, मुझ शुद्धस्वरूप द्वारा नहीं, ऐसी चिंतना का जो अनुगमन करता है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता है।'
और अब तो जब तुम अपने स्वरूप में डूब जाते हो तो तुम्हें पता चलता है, जो हो रहा है, या तो शरीर का है या मन का है; या शरीर और मन के बाहर फैली प्रकृति का है। मेरा किया हुआ कुछ भी नहीं। मैं अकर्ता हूं। मैं केवल साक्षी मात्र हूं। ऐसी चिंतना की धारा तुम्हारे भीतर बह जाती। ऐसा सूत्र, ऐसी चिंतामणि तुम्हारे हाथ लग जाती।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5
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