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________________ • अष्टावक्र कहते हैं, 'योगी नौकर से, पुत्रों से...।' अपने पुत्र से तो कोई धिक्कार की संभावना नहीं मानता। बेटा अपना और हंस दे, धिक्कार कर दे? तुम सबको माफ कर सकते हो लेकिन अपने बेटे को तो न कर सकोगे। क्योंकि बेटा तो तुम्हारा ही विस्तार है। तुम्हारा ही एक रूप, तुम्हीं पर हंस दे? यह तो जैसा अपना ही हाथ अपने को चांटा मारने लगे तो तुम कैसे बर्दाश्त कर सकोगे? यह तो बहुत ज्यादा हो जाएगा। 'पत्नियों से...।' अष्टावक्र ने जब ये सूत्र कहे तब पत्नी आज जैसी तो नहीं थी, आधुनिक तो नहीं थी। पत्नी तो खरीदी हुई थी। स्त्री धन-संपत्ति थी। ये सूत्र इतने पुराने हैं कि तब अगर कोई अपनी स्त्री को मार भी डालता था तो भी अपराध नहीं था। अपनी स्त्री मारी। किसी से कुछ प्रश्न ही नहीं है, अदालत का कोई सवाल नहीं है। अपनी थी, मारी। तुम अपनी कुर्सी तोड़ डालो, तुम अपने मकान को गिरा डालो, तुम अपने नोट में आग लगा दो, तुम्हारी मर्जी। तुमने अपनी पत्नी मार डाली, तुम जानो। ___ मैं एक घर में रहता था रायपुर में, कोई दो-चार ही दिन मुझे वहां हुए थे, कि बगल में एक रात कोई एक बजे मेरी नींद खुली। वह पति अपनी पत्नी को मार रहा है। दोनों मकानों की छतें मिलती थीं तो मैं छत उतरकर उसके मकान में गया। मैंने उस आदमी को रोकने की कोशिश की कि तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो? रुको। वह बोला, आप कौन हैं बीच में बोलनेवाले? यह मेरी पत्नी है। मैं चाहे इसे बचाऊं. चाहे मारूं. आप कौन हैं बीच में बोलनेवाले? वह ठीक बोल रहा है, शास्त्र की भाषा बोल रहा है। मनु महाराज की भाषा बोल रहा है। जैसे पत्नी उसकी कोई चीज है! वह इस बुरी तरह मार रहा है, उसके सिर से खून बह रहा है। और मुझसे कहता है, आप बीच में न पड़ें। आप कौन हैं बीच में बोलनेवाले? यह मेरी पत्नी है। अष्टावक्र कहते हैं, 'अपनी पत्नी से, पोतों से, संबंधियों से हंसकर धिक्कारे जाने पर भी जरा विकार को प्राप्त नहीं होता।' क्योंकि जिसे ज्ञान घटा, न कोई अपना रहा, न कोई पराया। कौन बेटा, कौन बाप? जिसे ज्ञान घटा, कौन मालिक, कौन नौकर? जिसे ज्ञान घटा, कौन पत्नी, कौन पति? जिसे ज्ञान घटा, एक ही बचा। और जिसे ज्ञान घटा वह तो मिट गया। वह घाव ही न रहा जिस पर चोट लगती है धिक्कार की, अपमान की, असम्मान की, कोई हंस दे इस बात की। वह घाव ही भर गया, वह घाव ही न रहा। अहंकार न रहा तो अपमान जरा भी पीड़ा नहीं देता। विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृति मनाक्। जरा भी, किंचित भी अंतर नहीं पड़ता। मैं ही नहीं बचा तो तुम चोट कैसे करोगे? तुम जो चोट कर रहे हो वह व्यर्थ जा रही है, खाली जा रही है। वहां कोई है नहीं जो चोट को पकड़े, जिसमें चोट चुभे। 'धीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता है, और दुखी होकर भी दुखी नहीं होता है। उसकी आश्चर्यमय दशा को वैसे ही ज्ञानी जानते हैं।' यह सूत्र बहुत अनूठा है; इसे समझने की कोशिश करें। संतुष्टोऽपि न संतुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते। 284 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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