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________________ मुश्किल है, क्योंकि मामला बिलकुल साफ नहीं है, मित्र होने का दावा है । अंततः मित्र ही बड़े शत्रु सिद्ध होते हैं। क्योंकि वे ही निकट होते हैं और छुरा भोंकना उन्हें ही आसान होता है। स्पृहा हिंसा है। स्पृहा शत्रुता है। स्पृहा में सारा रोग है, महारोग है । अष्टावक्र कहते हैं : उच्छृंखलाप्यकृतिका स्थितिर्धीरस्य राजते । अगर कभी तुम धीर पुरुष को क्रोध में भी देखो, उच्छृंखल भी देखो, नाराज भी देखो, तो भी गौर से देखना, उसकी नाराजगी के पीछे गहन शांति होगी । और तुम अगर स्पृहा से भरे हुए व्यक्ति को शांत बैठा देखो तो उसकी शांति ऊपर-ऊपर होगी और भीतर गहन अशांति का तूफान, अंधड़ चलता होगा। रोजे के दिन थे और मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने तीन मित्रों के साथ एक दिन मौन से बैठने का निर्णय किया; दिन भर मौन रखना है। बैठे ही थे मौन से, आधा घड़ी भी न गुजरी थी कि एक व्यक्ति थोड़ा बेचैन - सा होने लगा और एकदम से बोला कि पता नहीं, मैं घर में ताला लगा पाया कि नहीं। दूसरे ने कहा, नालायक ! बोलकर सब खराब कर दिया। टूट गया व्रत। तीसरे ने कहा, किसको समझा रहे ? तुम भी बोल गए। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि हमीं भले; अभी तक नहीं बोले । अशांत आदमी चेष्टा करके बैठ भी जाए तो भी कुछ फर्क तो नहीं पड़ता । अशांत तो अशांत है, ऊपर-ऊपर से थोप भी ले तो कुछ अंतर नहीं आता। सच तो यह है, अगर तुम अशांत हो तो जब तुम शांत बैठोगे तब तुम्हारी अशांति जितनी प्रगट होगी उतनी कभी भी प्रगट नहीं होगी। क्योंकि उस वक्त तो अशांति ही अशांति बचेगी। एक झीनी-सी पर्त तुम ऊपर से ओढ़ लोगे - एक चादर, और भीतर तो अंधड़ चल रहे होंगे। जीवन के कामों में उलझे रहते हो तब उतने अंधड़ चलते भी नहीं। क्योंकि ऊर्जा कामों में उलझी रहती है। शांत होकर बैठ गए तो ऊर्जा का क्या होगा, शक्ति का क्या होगा ? जो दूकान में लगी है, लड़ने में लगी है, मरने-मारने में लगी है, वह सब खाली पड़ी है। वह एकदम भीतर घुमड़ने लगेगी। वह सारी भाप तुम्हारे भीतर इकट्ठी होने लगेगी। तुम्हारी केतली शोरगुल करने लगेगी, फूटने का क्षण करीब आने लगेगा। अक्सर ऐसा होता है, जब लोग ध्यान करने बैठते हैं तब उन्हें अशांति का पता चलता है। मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि जब हम ध्यान के लिए नहीं बैठते तब सब ठीक रहता है, जब ध्यान के लिए बैठते हैं, हजार-हजार सवाल उठते हैं, हजारों विचार उठते हैं। न मालूम कहां-कहां के वर्षों पहले की यादें आती हैं। जिनको हम सोचते हैं भूल ही चुके थे, वे अभी ताजे मालूम पड़ते हैं। जो घाव हम सोचते थे भर चुके हैं, वे फिर खुल जाते हैं। यह क्या ध्यान हुआ? यह कैसा ध्यान है ? लेकिन कारण है। साधारणतः तुम व्यस्त रहते हो। तुम्हें अपने भीतर झांकने का मौका भी नहीं मिलता। अगर तुम घड़ी भर को शांत होकर बैठ जाओ तो भीतर का सारा रोग साक्षात्कार होने लगता है, सामने आ जाता है। सारा ज्वर, सारी मवाद भीतर बहती हुई दिखाई पड़ने लगती है। 'धीर पुरुष को स्वाभाविक उच्छृंखल स्थिति भी शोभती है । ' ख्याल करना इस वचन का – 'स्वाभाविक' । मैंने तुम्हें पीछे कहा, चादविक ने लिखा है कि रमण को कभी उसने नाराज न देखा था। लेकिन एक दिन एक पंडित आया और उनसे ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछने लगा; और उन्होंने उसे बहुत समझा 278 अष्टावक्र: महागीता भाग-5
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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