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चाहता हूं वह जो कि सही है। सच तो यह है कि सही को सीधा-सीधा कहने का कोई उपाय ही नहीं है। नेति-नेति उसका मार्ग है। यह नहीं है सत्य, यह नहीं है सत्य, यह नहीं है सत्य, ऐसा एक-एक असत्य को बताते-बताते, बताते-बताते जब सब असत्य चुक जाते हैं, तो गुरु कहता है, अब जो शेष रहा, यही है सत्य। सीधा कोई उपाय नहीं है कि उंगली रख दी जाये—यह है सत्य।
सत्य इतना बड़ा है कि उंगली रखी नहीं जा सकती। असत्य छोटे-छोटे हैं, उन पर उंगली रखी जा सकती है। तो असत्य पर उंगली रखी जाती है-यह असत्य, यह असत्य, यह असत्य, चले; आखिर एक घड़ी तो आयेगी जब असत्य चुक जायेंगे! सत्य तो असीम है, असत्य सीमित हैं। तो असत्य तो चुक जायेंगे। एक न एक दिन गलत की तो गणना हो जायेगी। फिर जो गणना के बाहर रह गया, फैला आकाश की तरह, वही शेष रह गया, वही सत्य है। नेति-नेति उपाय है। यह भी नहीं, यह भी नहीं। तब तुम किसी दिन जान लोगे, क्या है।
असार को पहचान लिया, तो सार का द्वार खुल जाता है। संसार को समझ लिया, तो मोक्ष का द्वार खुल गया। इसीलिए तो संसार है, नेति-नेति का उपाय करने को। धन के मोह में पड़े, फिर पाया कि नहीं मिलता सुख, कहा-नेति, नहीं। स्त्री के प्रेम में पड़े, पुरुष के प्रेम में पड़े, पाया कि कुछ पाया नहीं, कहा-नेति। पद पाया, प्रतिष्ठा पायी और पाया कि कुछ न मिला, हाथ में राख लगी, कहा-नेति। ऐसा कहते गये, नेति-नेति, एक दिन पूरा संसार जो-जो दे सकता था सब-पहचान लिया, अचानक सब संसार व्यर्थ हो गया और गिर गया, तब जो शेष रह जाता है, वही निर्वाण है।
और फिर पूछते हो कि 'जीवन की खोज को अधूरा छोड़कर संन्यास में प्रवेश क्या पलायन नहीं? क्या कायरता नहीं?'
यही तो मैं रोज कह रहा हूं कि जीवन की खोज को अधूरा छोड़कर संन्यास में प्रवेश मत करना, वह पलायन होगा। इसीलिए तो मैं अपने संन्यासी को भी जीवन की खोज से तोड़ता नहीं। उससे कहता हूं, जीवन की खोज भी जारी रहने दो और संन्यास के संगीत को भी धीरे-धीरे आत्मसात करने लगो। क्योंकि तुम कैसे जानोगे कि अब जीवन की खोज पूरी हो गई, मुझे बताओ! तुम कैसे जानोगे कि अब आ गया वक्त संन्यास में प्रवेश का? धीरे-धीरे अभ्यास करते रहो संन्यास का-संसार को भी चलने दो, संन्यास का अभ्यास भी करते रहो। क्योंकि अगर अचानक एक दिन पता चला कि संसार तो व्यर्थ हो गया और तुम्हारे पास अगर संन्यास की कोई भी धारणा न रही, संन्यास का कोई सूत्र हाथ में न रहा, तो तुम आत्महत्या कर लोगे बजाय संन्यास में जाने के। __तुम्हें खयाल है, पश्चिम में आत्महत्याएं बड़ी मात्रा में घटती हैं, पूरब में नहीं घटती हैं। और कारण? कारण संन्यास है। पश्चिम में जब एक आदमी जीवन से बिलकुल हार जाता है और पाता है कुछ सार नहीं, तो एक ही बात समझ में आती है-खतम करो अपने को, क्योंकि अब क्या करने को बचा! पूरब में आदमी आत्महत्या नहीं करता। जब जीवन व्यर्थ हो जाता है तो संन्यस्त हो जाता है। पूरब ने आत्महत्या का विकल्प खोजा है। पश्चिम के पास विकल्प नहीं है, इसलिए पश्चिम में आत्महत्या रोज बढ़ती जाती है। बढ़ती रहेगी, जब तक संन्यास न पहुंच जायेगा पश्चिम में। जब तक गैरिक रंग नहीं फैलता पश्चिम के आकाश पर, तब तक पश्चिम में आत्महत्या जारी रहेगी और बढ़ती जायेगी। रोज-रोज बढ़ती जायेगी। क्योंकि लोगों को समझ में आता जाता है कि जीवन व्यर्थ, जीवन
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5