________________
इनको हमें फेंककर चले जाने दें। ___ वजीर भी हिम्मत से भर गया, राजा भी हिम्मत से भर गया। जब दुश्मन उन्हें खंदकों में फेंककर लौट गये तो वजीर ने कहा, अब क्या विचार है? लेकिन अचानक लोहार उदास हो गया और रोने लगा। उसने कहा, क्या मामला है? तू अब तक तो हिम्मत बांधे था, अब क्या हुआ? उसने कहा, अब मुश्किल है। मैंने हथकड़ी गौर से देखी, इस पर तो मेरे हस्ताक्षर हैं। यह तो मेरी ही बनाई हुई है। यह नहीं टूट सकती। यह असंभव है। मैंने कमजोर चीज कभी बनाई ही नहीं। मैं हमेशा मजबूत से मजबूत चीज ही बनाता रहा हूं। वही मेरी ख्याति है। यह किसी और की बनाई होती तो मैंने तोड़ दी होती। अब यह टूटनेवाली नहीं। क्षमा करें। इस पर मेरे हस्ताक्षर हैं। ___ मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारी हर हथकड़ी पर तुम्हारे हस्ताक्षर हैं। कोई और तो ढालेगा भी कैसे? और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि रोने की कोई जरूरत नहीं है। कितनी ही मजबूत हो, तुम्हारी ही बनाई हुई है। और बनानेवाले से बनाई गई चीज कभी भी बड़ी नहीं होती। हो नहीं सकती।
कितना ही बड़ा चित्र कोई बनाये चित्रकार, लेकिन चित्रकार चित्र से बड़ा रहता है। और कितना ही बड़ा गीत कोई गाये गीतकार, लेकिन गायक गीत से बड़ा रहता है। और कितना ही मधुर कोई नाचे नर्तक, लेकिन नर्तक नृत्य से बड़ा रहता है। इसीलिए तो परमात्मा संसार से बड़ा है। और इसीलिए तो आत्मा शरीर से बड़ी है।
चिंता न लेना। यह बात, कि जीवन के सारे बंधन हमारे ही बनाये हुए हैं, घबड़ानेवाली नहीं है, मुक्तिदायी है। हम तोड़ सकते हैं।
और मजा तो यह है कि बंधन काल्पनिक हैं। वस्तुतः नहीं हैं, स्वप्नवत हैं, सम्मोहन के हैं। निर्वासनो निरालंबः स्वच्छंदो मुक्तबंधनः। क्षिप्तः संसारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्।।
'वासनामुक्त, वासनाशून्य, स्वतंत्र, निरालंब, स्वयं के छंद को उपलब्ध बंधनरहित जो पुरुष है'—फिर अनुवाद में थोड़ी भूल है-'प्रारब्धरूपी हवा से प्रेरित होकर शुष्क पत्ते की भांति व्यवहार करता है।'
मूल है : संसारवातेन-संसार की हवा से-प्रारब्ध का कोई सवाल नहीं है। भाग्य का कोई सवाल नहीं है। संसार की गति है, उस संसार की गति में सूखे पत्ते की तरह...हवा में जैसे सूखा पत्ता पूरब-पश्चिम जाता, ऊपर-नीचे गिरता; ऐसे ही पूर्ण ज्ञानी पुरुष बहुत-से व्यवहारों में संलग्न होता मालूम पड़ता है, लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि वह करता है। ___जब सूखा पत्ता पूरब की तरफ जाता है तो तुम यह थोड़े ही कहोगे कि सूखा पत्ता पूरब की तरफ जा रहा है। सूखा पत्ता तो कहीं नहीं जा रहा है, हवा पूरब की तरफ जा रही है। हवा दिखाई नहीं पड़ती, सूखा पत्ता दिखाई पड़ता है। लेकिन सूखा पत्ता तो कहीं नहीं जा रहा है। हवा न चले, सूखा पत्ता गिर जायेगा। ज्ञानी अपने को छोड़ देता अस्तित्व के सागर में जहां ले जाये। उसकी अपनी कोई निजी आकांक्षा नहीं है।
और इस सूत्र में समाधि का सारा सार है। चलो, उठो, बैठो-संसारवातेन। तुम अपनी आकांक्षा से नहीं। जो होता हो, जैसा होता हो, वैसा होने दो। दुकान करते हो, दुकान करते रहो। युद्ध के मैदान
12
अष्टावक्र: महागीता भाग-5