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भूल गया।
ऐसा बालवत। शुभ-अशुभ में हिसाब नहीं है। क्रोध और प्रेम में भी हिसाब नहीं है। जो क्षण में होता है, पूरे भाव से कर लेता है। फिर क्षण के साथ ही विदा हो जाती है बात। ऐसा क्षण-क्षण रूपांतरित, क्षण-क्षण प्रवाहमान, क्षण-क्षण सरितवत, ऐसा जो व्यक्ति है उसको ही अष्टावक्र साधु कहते हैं। उसी को सरल। साधु यानी सरल, ऋजु। ___ 'धीरपुरुष स्वतंत्रता से सुख को प्राप्त होता है, स्वतंत्रता से परम को प्राप्त होता है, स्वतंत्रता से नित्य सुख को प्राप्त होता है, और स्वतंत्रता से परमपद को प्राप्त होता है।'
स्वतंत्रता अष्टावक्र का सारसूत्र है; अष्टावक्र की कुंजी।
कृष्णमूर्ति की एक किताब है : 'द फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम', पहली और अंतिम स्वतंत्रता। इस एक सूत्र की व्याख्या है पूरी किताब। या पूरी किताब को इस एक सूत्र में समाया जा सकता है। यह सूत्र अदभुत है।
स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्यात् लभते परम्।। स्वातंत्र्यान्निर्वतिं गच्छेत स्वातंत्र्यात परमं पदम्।। 'धीरपुरुष स्वतंत्रता से सुख को प्राप्त होता है...।'
पराधीनता में तो सुख कहां? फिर पराधीनता दूसरे की हो या अपनी ही थोपी हुई, पराधीनता में तो सुख कहां? पराधीनता में तो दुख ही है। जंजीरें दूसरे ने पहनाई हों कि खुद पहन ली हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। पंख किसी और ने काटे हों कि खुद कटवा दिये हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। परतंत्रता में दुख है, क्योंकि परतंत्रता में सीमा बंध जाती है। असीम में सुख है।
इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति। एक ही सुख है जगत में, वह है स्वतंत्र हो जाना। तो समस्त मर्यादाओं से, समस्त सीमाओं से, समस्त यम-नियम, समस्त जप-तम, साधना - मात्र से स्वतंत्र हो जाना है। __ यह तो आधा हुआ स्वतंत्रता का हिस्सा-नकारात्मक हिस्साः किस-किस चीज से स्वतंत्र हो जाना है। और फिर किसमें स्वतंत्र हो जाना है-बोध में। बंधनों से स्वतंत्र हो जाना है, यह तो स्वतंत्रता का नकारात्मक हिस्सा है। फिर बोध में, जागृति में, साक्षीभाव में स्वतंत्र हो जाना, यह स्वतंत्रता का विधायक हिस्सा है।
नकारात्मक स्वतंत्रता ही अगर हो तो तुम स्वच्छंद हो जाओगे, उच्छृखल के अर्थ में। जब तक विधायक स्वतंत्रता न हो तब तक तुम स्वच्छंद न हो पाओगे, अष्टावक्र के अर्थ में। तो स्वतंत्रता के दो पहलू खयाल रखना-जिससे स्वतंत्र होना है और जिसके लिए स्वतंत्र होना है। दोनों बातें अगर मिल जायें तो तुम्हारे भीतर का स्वयं का छंद प्रगट होगा। स्वच्छंदता प्रगट होगी। तुम्हारे भीतर छिपा गीत फूटेगा। तुम्हारा झरना बहेगा। तुम्हारा कमल खिलेगा।
स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्यात् लभते परम्।
और इसी स्वतंत्रता में परम ज्ञान का जन्म होता है। उस परम का, अल्टिमेट का, आखिरी का, जिसके पार फिर कुछ जानने को नहीं रह जाता, उसका बोध होता है। वह ज्ञान कोई बाहर नहीं है, वह तुम्हारा आत्म-साक्षात्कार है। जहां कोई बंधन न रहे, जहां सब बंधन विसर्जित हुए और जहां तुम्हारे
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5