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________________ अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा या धूप में अठखेलियां हर रोज करती है एक छाया सीढ़ियां चढ़ती-उतरती है नहीं कोई वास्तविक रहा तो छायायें सीढ़ियां चढ़ेंगी-उतरेंगी, सपने उठेगे, कल्पनायें जगेंगी। - मैं तुम्हें छूकर जरा-सा छेड़ देता हूं और तुम कल्पनाओं को छूने लगोगे। तुमने ऋषि-मुनियों की कथायें पढ़ी हैं, अप्सरायें सताती हैं। अप्सरायें कहां से आयेंगी? अप्सरायें होती नहीं। ये ऋषि-मुनि जिनको भाग गये हैं छोड़कर, उनकी ही कल्पनायें हैं। छायायें सीढ़ियां चढ़ती-उतरती हैं। कोई नहीं सता रहा। अप्सराओं को क्या पड़ी तुम्हारे विश्वामित्रों को सताने के लिए! अप्सराओं को फुरसत कहां? देवताओं से फुरसत मिले तब तो वे इन...और ऋषि-मुनियों को बेचारों को! नाहक सूख गये जिनके देह, हड्डी-मांस सब खो गया, अस्थि-पंजर रह गये जो, इन पर अप्सराओं को इतना क्या मोह आता होगा! अप्सरायें इन्हें देखकर डरें, यह तो समझ में आता कि बाबा आ रहे हैं! मगर अप्सरायें इनको सताने आयें, नग्न होकर इनके आसपास नाचें...। मगर बात में रहस्य है। ये अप्सरायें इनके मन की ही छायायें हैं। स्त्रियों को छोड़कर भाग गये हैं, स्त्रियां मन में बसी रह गई हैं। एक छाया सीढ़ियां चढ़ती-उतरती है मैं तुम्हें छूकर जरा-सा छेड़ देता हूं और गीली पांखुरी से ओस झरती है तुम कहीं पर झील हो, मैं एक नौका हूं इस तरह की कल्पना मन में उभरती है और कल्पनाओं पर कल्पनायें उभरती रहेंगी। जिससे तुम भागे हो उससे तुम कभी छूट न पाओगे। उससे तुम सदा के लिए बंधे रह जाओगे। भागने में ही बंधन हो गया। भागने में ही गांठ बंध गई। भागने में ही तुमने बता दिया कि जीत नहीं सके, हार गये। जिससे हार गये उससे हारे रहोगे; बार-बार हारना होगा। अष्टावक्र उस पक्ष में नहीं हैं। वे कहते हैं, 'यथार्थ सत्य के श्रवण मात्र से शुद्ध-बुद्धि और स्वस्थ चित्त हुआ पुरुष न आचार को, न अनाचार को, न उदासीनता को देखता है।' वस्तुश्रवणमात्रेण...। में तुमसे रोज कहता रहा हूं, प्रज्ञा प्रखर हो तो सुनने मात्र से, श्रवणमात्रेण। वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिनिराकुलः। जिसकी बुद्धि शुद्ध हो, निराकुल हो, तरंगें न उठ रही हों; वस्तुश्रवणमात्रेण-बस सुन लिया सत्य को कि हो गई बात, घट गई बात। कुछ करने को शेष नहीं रह जाता है। नैवाचारमनाचारमौदास्यं वा प्रपश्यति। और ऐसे व्यक्ति के जीवन में, जहां चित्त स्वस्थ है, शुद्ध है बुद्धि, सत्य के श्रवण मात्र से, सिर्फ सत्य के आघात मात्र से, सत्य के संवेदन मात्र से जो मुक्त हुआ है; किसी आग्रह, हठ, योग, नियम, । स्वातंत्र्यात् परमं पदम् 233
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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