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भी भागे रहते। तुम्हारा मन तो सदा चलायमान ही रहता है।
बोकोजू ने कहा, नहीं जब मैं भोजन करता तो बस भोजन करता । और बोकोजू ने कहा, जब भूख लगती तब भोजन करता। तुम्हें भूख भी नहीं लगती तो भी भोजन करते । समय हो गया तो भोजन करते । करना चाहिए भोजन तो भोजन करते । भूख का कोई संबंध नहीं है तुम्हारे भोजन से, तुम्हारी व्यवस्था का संबंध है। कभी भूख भी लगती तो भोजन नहीं करते, क्योंकि उपवास कर रहे हो। तुम प्रकृति की थोड़े ही सुनते। कभी बिना जरूरत के भोजन डालते, कभी जरूरत होती तो भोजन नहीं डालते। बड़े अजीब हो। कभी कहते पर्यूषण आ गये, अभी व्रत करना है। अब यह पेट को भूख लगती है, तुम भोजन नहीं करते। और रोज ऐसा करते कि पेट को भूख नहीं लगी तो भी भोजन डाले जाते। पेट भर जाता है तो भी नहीं सुनते। पेट कहने भी लगता है, अब क्षमा करो। दर्द भी होने लगता है, कहता है क्षमा करो, लेकिन तुम कहते, थोड़ा और ।
मैंने सुना है मथुरा के एक पंडे के संबंध में; किसी के घर भोजन करने गये । इतना भोजन कर गये, इतना भोजन कर गये कि गाड़ी पर डालकर उनको घर लाना पड़ा। जब घर आये तो उनकी पत्नी ने कहा कि चलो कोई बात नहीं। ऐसा तो मेरे पिता के साथ भी होता था । यह कोई नयी बात नहीं । यह गोली ले लो। तो उन्होंने कहा, अरे पागल, अगर गोली ही खाने की जगह होती तो एक लड्डू और न खा जाते ? जगह है कहां ? एक गोली की भी जगह नहीं छोड़ी।
तो तुम इतना भी कर लेते हो। मेरे एक मित्र हैं, लेखक हैं। उनकी शादी हुई तो जिस घर में गये—देहाती हैं—जिस घर में शादी हुई, वह बड़ा संस्कारशील, कुलीन घर है । छोटी-छोटी पूड़ी ! तो वे एक पूड़ी का एक ही कौर कर जायें। उनकी पत्नी को शर्म आने लगी। पहली ही दफा विवाह के बाद आये थे पत्नी को लेने। तो उसने ऐसा कोने से छिपकर इशारा किया दो अंगुलियों का । इशारा किया कि दो टुकड़े करके तो कम से कम खाओ। वे समझे कि शायद इस घर में दो पूड़ी एक साथ खाई जाती हैं । सो उन्होंने दो पूड़ियों का एक कौर बना लिया। मुझे कहते थे कि बड़ी बदनामी हुई। कहता है, जब भूख लगती है तब भोजन करता हूं; और तब सिर्फ भोजन करता हूं। और जब नींद आती है तब, और केवल तब ही सोता हूं। और तब केवल सोता हूं।
यही इस सूत्र का अर्थ है। यह सूत्र बड़ा अदभुत है।
'... लेकिन वह देखता हुआ देखता, सुनता हुआ सुनता, स्पर्श करता हुआ स्पर्श करता, सूंघता हुआ सूंघता, खाता हुआ खाता सुखपूर्वक रहता है।'
उसके जीवन में कोई दमन नहीं है, कोई जबर्दस्ती नहीं है, कोई आत्महिंसा नहीं है, कोई कठोरता नहीं है, कोई तप - तपश्चर्या नहीं है। न तो भोग है उसके जीवन में, न योग है उसके जीवन में। उसके जीवन में बड़ी सरलता है।
पश्यन्श्रृण्वन्स्पृशन्जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम् ।
ऐसा सब क्रियाओं में होता हुआ सुखपूर्वक जीता है। डोलता नहीं अपनी कील से । चाक च रहता, वह अपनी कील पर थिर रहता । वह अपने में ठहरा रहता।
और यह भी खयाल रखना कि उसकी सारी प्रक्रिया बोध मात्र है। जब देखता तो बेहोशी में नहीं देखता, होशपूर्वक देखता । फर्क समझो ! भगोड़ा कहता है, स्त्री को देखना मत । ज्ञानी कहता है,
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5